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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


सम्भवतः शरहवेशी अर्थात् नीलके एवजमें लगानकी वृद्धिका अस्तित्व ही न होता। मैं मानता हूँ कि बन्दोबस्त अधिकारी शिष्ट और सहानुभूतिपूर्ण था और अपने कर्त्तव्यका पालन करनेको इच्छुक था। मैं यह भी मानता हूँ कि यह अधिकारी अपनी निष्पक्षताकी बदौलत ही काश्तकारोंके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार कर सका -- जबकि अन्य अधिकारी ऐसा करनेमें असफल हो गये होते। परन्तु जाँच समितिके सामने भी अनेक मुद्दे तय करने थे; उनके सम्बन्धमें बन्दोबस्त अधिकारी होनेके नाते वह किसी भी अन्य व्यक्तिकी अपेक्षा कुछ अधिक प्रकाश डाल सकता था, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि वे मुद्दे उसके कार्यक्षेत्रसे परे थे। जाँच समितिकी बहुसमावेशी सिफारिशें बन्दोबस्त अधिकारीके बयानपर आधारित नहीं हैं बल्कि बिहार सरकारके पास मौजूद उन कागजोंपर आधारित हैं जिनमें से अधिकांश तो ऐसे थे जिनपर बन्दोबस्त अधिकारी द्वारा कार्य प्रारम्भ किये जानेके पूर्वकी तिथियाँ पड़ी हुई थीं। सरकार नीलकी जबरन खेतीकी प्रथाके उन सब दोषों से पहलेसे ही परिचित थी जिनको समितिने जनताके सामने रखा है, इसलिए उलटे यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि सरकारने इस प्रथाका अन्त पहले ही क्यों नहीं कर दिया? पिछले बन्दोबस्त से पूर्व भी कई बार जमीनका बन्दोबस्त किया जा चुका था। समितिने जिन कष्टोंके बारेमें जाँच-पड़ताल की है उन कष्टोंके निवारणार्थ नये बन्दोबस्तकी इन कार्रवाइयोंके दौरान कोई कदम क्यों नहीं उठाया? जाँच समितिने काश्तकारोंकी जिन शिकायतोंको यथार्थ माना है, उनकी लम्बी सूची देकर में पाठकोंको उबाना नहीं चाहता। मैं तो इतना ही कहकर सन्तोष माने लेता हूँ कि यदि सरकारने बाबू ब्रजकिशोर प्रसादकी बात मान ली होती -- जो कि [ उस अवसरपर] नक्कारखाने में तूतीकी आवाजकी भाँति थी -- तो समिति उन सब शिकायतों में से प्रत्येकको विशेषतया शरहबेशी और तावानके प्रश्नको हल कर सकती थी, और इसके लिए नये बन्दोबस्तकी जरूरत नहीं थी। काश्तकार लोग तावानके रूपमें होनेवाली खुली डकैती और शरहबेशीके रूपमें होनेवाली छिपी डाकेजनीसे बच जाते। मैं बिहारके बाहर रहनेवाले व्यक्तियोंकी सुविधाके लिए इन दो शब्दों अर्थात् तावान और शरहबेशीका अर्थ समझा देना चाहता हूँ। तावान तथाकथित हरजानेकी वह रकम थी जो भूमिका पट्टेदार बागान मालिक, उन दिनों जब जमींदारको नीलकी जरूरत नहीं हुआ करती थी, अपने काश्तकारोंसे नील न उपजानेके एवजमें वसूल किया करता था -- और शरहबेशी लगानमें वह इजाफा था जो वैसी ही परिस्थितिमें स्थायी पट्टेदार अपने काश्तकारोंसे लिया करते थे। इस प्रकारसे तावान और शरबेशी कुछ वैसी ही चीज है, मानों किसी इकरारके दो फरीकों में से एक फरीक इकरारको एक बोझा समझकर इकरार की शर्तोंसे छूट निकले और इकरार के बन्धन से अपनी छूटका हरजाना दूसरे फरीकसे वसूल करे। सामान्यतया तो यही हुआ करता है कि जो व्यक्ति किसी कारणसे छूटना चाहता है वही इकरारसे छूटने की कीमत भी अदा करता है। यह कहना कि काश्तकार लोग भी यही चाहते थे, असली मुद्देसे बिलकुल अलग बात है। वे लाचार थे। बिहार सरकारका पक्ष उसके इस कथन से बिलकुल ही कमजोर हो जाता है।

"चूँकि यह प्रथा बागान मालिकों और काश्तकारोंके बीच किये गये इकरारनामोंपर आधारित थी, इसलिए स्थिति और भी जटिल हो गई थी, और