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सर शंकरन् नायर और चम्पारन
जाहिर है कि इकरारोंपर आधारित सम्बन्धोंकी सुसम्पादित व्यवस्थामें हस्तक्षेप करना अत्यन्त नाजुक काम है, और जबतक हस्तक्षेप करनेकी अनिवार्यता बिलकुल स्पष्ट न हो, तबतक कोई सरकार उसमें हस्तक्षेप करनेका साहस न करेगी। श्री गांधीने अपने हस्तक्षेपसे काश्तकारोंके असन्तोषको जिस तरह उभारा और उसके परिणामस्वरूप जिलेमें अराजकताका विस्फोट होनेका अन्देशा होनेके कारण सरकारको राहत देनेकी अपनी वर्तमान योजना पहले ही निर्धारित करनी पड़ी। परन्तु उस समयतक जिस जानकारीको स्थानिक प्रशासन हमेशासे अत्यावश्यक मानता आया था वह जानकारी भी बन्दोबस्त विभागके कर्मचारियोंने एकत्रित कर ली थी। और इस जानकारीके सुलभ होनेकी बदौलत ही जाँच- समिति अपना कार्य इतनी तेजीसे पूरा कर सकी।"

यह सच है कि चम्पारन में मेरी उपस्थितिके परिणामस्वरूप काश्तकारोंका असन्तोष उभरकर सामने आ गया था। यदि उन्हें राहत न दी गई होती तो उन्होंने निःसन्देह गोरे बागान मालिकोंके खेतोंमें काम करना बन्द कर दिया होता -- खेतोंमें काम करनेके लिए वे किसी प्रकार से बँधे हुए न थे। परन्तु मैं इस बातको माननेसे इनकार करता हूँ कि मेरे बीच में पड़नेके परिणामस्वरूप जिलेमें अराजकता अर्थात् काश्तकारोंमें अराजकता फैलनेका अन्देशा उत्पन्न हो गया था। मैं यह बात बिना किसी संकोचके कह सकता हूँ कि इस प्रकारकी अराजकताको प्रतिबन्धित रखने में मेरी उपस्थितिका बहुत बड़ा हाथ रहा है। मैंने काश्तकारोंसे साफ-साफ कह दिया था कि यदि वे एक भी हिंसात्मक कार्य करेंगे तो मैं उसी क्षण उनका साथ छोड़ दूंगा। मैं हजारों काश्तकारोंसे मिला और मुझे एक भी ऐसे अवसरकी जानकारी नहीं है कि जब मेरी उपस्थितिका काश्तकारोंपर शमनकारी प्रभाव न हुआ हो। मैं यह बात भी माननेको तैयार नहीं हूँ कि "चूँकि बन्दोबस्त विभागके रजिस्टरोंमें सब जानकारी प्रस्तुत थी और वह जाँचसमितिको सुलभ थी इसलिए समिति काम शीघ्रतासे समाप्त कर सकी।" वास्तविकता तो यह है कि जितने दिन में चम्पारनमें रहा उतने दिन गोरे बागान मालिक बराबर यही चिल्लाते रहे कि गांधीको चम्पारनसे निकाल दिया जाये। मैं यह बात शिकायत के रूपमें नहीं कह रहा हूँ और न मैंने इसकी उस समय ही कोई शिकायत की थी। परन्तु चम्पारनसे स्वयं हटने या अपने बिहारी सहयोगियोंको वहाँसे हटानेसे इनकार करते समय मुझे प्रायः सरकारसे तथा स्वयं अपनेसे यह प्रश्न पूछना पड़ता था कि इस बात को देखते हुए कि प्रत्येक प्रजाजनके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना सरकारका कर्त्तव्य है, क्या सरकार खुद-ब-खुद चम्पारनके काश्तकारोंकी शिकायतें रफा नहीं कर देगी और यही बात मैंने एक सरकारी अधिकारीको लिखे गये ३१ मईके अपने पत्र में कही थी[१]:

स्वाभाविक रूपसे प्रश्न उठता है, क्या सरकार उन्हें उससे मुक्त नहीं कर सकती? मेरा कहना है कि इस प्रकारके मामलोंमें मण्डली जैसी सहायता

  1. यह पत्र मई २०, १९१७ को लिखा गया था । देखिए खण्ड १३, पृष्ठ ४०८-१०