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४७. अब्दुल बारीको लिखे पत्रका अंश[१]

बम्बई जाते हुए गाड़ीमें

अगस्त २७, १९१९

मेरी समझमें [अली] बन्धुओंकी रिहाईकी माँग करनेका ठीक वक्त अभी नहीं आया। गुजारेके खर्च सम्बन्धी आदेशसे ही हमें सन्तोष करना होगा। जबतक टर्कीके साथ की गई सुलहकी शर्तें प्रकट नहीं की जाती तबतक मैं समझता हूँ कि हमारे प्रयत्न सफल नहीं होंगे।

अपने सन्देशमें[२] मैंने इस सम्बन्धमें अपने विचार आपको लिख भेजे थे। बहुत करके मामला तो तय हो ही चुका है। यदि अंग्रेजी समाचारपत्रोंकी रिपोर्ट सही है तो मेरा विश्वास है कि कुस्तुनतुनियाके ऊपर अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण और थ्रेसके विभाजनका फैसला होगा। मैं वाइसराय महोदयसे इस सम्बन्ध में पत्र-व्यवहार कर रहा हूँ। में जानता हूँ कि मुसलमानोंको कैसा लगता है, लेकिन विशेषरूपसे केवल उनकी भावनाओंको व्यक्त करनेका मुझे अधिकार नहीं है। संयुक्त रूपसे, दृढ़तापूर्वक हमारे द्वारा कदम उठाये जानेका मौका आ पहुँचा है। अन्यथा बादमें गहरी निराशा और क्षोभ ही हाथ लगेंगे। लेकिन तब वह सब व्यर्थ ही होगा। इस समय सब-कुछ किया जा सकता है और सन्धिकी शर्तें प्रकाशित होने के बाद कुछ भी नहीं। मैं इस विषम स्थितिको बड़ी तीव्रताके साथ अनुभव करता हूँ और यह सोचकर बड़ी शर्म आती है कि हम लोग दूसरोंकी निगाह में इतने लापरवाह और गैरजिम्मेदार सिद्ध हो गये। हिंसा कोई उपाय नहीं है, न अब, न आगे कभी; और मैं जानता हूँ कि आप हिंसाका विरोध करने आये हैं। लेकिन यह जरूरी है कि इसके लिए अनेक लोग आजकी अपेक्षा कहीं अधिक प्रयत्नशील हों। सब-कुछ कर चुकनेके बाद तो सत्याग्रह ही एकमात्र उपाय है, जिसका आश्रय लिया जा सकता है।[३] जब हमारी आँखोंके सामने ही यह दुःखद प्रसंग घटित हो रहा है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, उस समय तो सत्याग्रह ही सहारा है। वह आत्माकी आवाज हो सकती है, और आत्मा न कभी सोती है, न विश्राम करती है। और जब अवसर आता है तब परिणामकी परवाह किये बिना जो करना है, कर

  1. पत्रका यह अंश सीक्रेट सेंसर रिपोर्टसे लिया गया है; पत्रको अवश्य ही बीचमें रोक लिया गया होगा। अपने ४ अगस्तके पत्रमें अब्दुल बारीने अली भाइयोंके सम्बन्धमें चिन्ता व्यक्त की थी। और इस सिलसिले में वाइसरायके पास एक शिष्टमण्डल भेजनेके बारेमें गांधीजीकी सलाह माँगी थी।
  2. यह २० जूनको भेजा गया था।
  3. मूल अंग्रेजीके अनुसार 'जिसका आश्रय नहीं लिया जा सकता '; 'नहीं' का प्रयोग स्पष्टतः चूक है।