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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

योग्यता-भर देशकी अधिकसे-अधिक सेवा करनेका साहस दिखाया, जेलसे बाहर रहना खुशीकी बात नहीं है।

हृदयसे आपका,

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ६८२९) की फोटो नकलसे।

५१. पत्र : 'टाइम्स ऑफ इंडिया' को[१]

लैबर्नम रोड

बम्बई

अगस्त २९, १९१९

महोदय,

मैं जानता हूँ कि हमसे कई हजार मीलकी दूरीपर होनेवाली जो घटनाएँ और समस्याएँ हैं उनके सम्बन्धमें लोगोंकी अनभिज्ञता स्वाभाविक ही है, और इस अज्ञानको धैर्यपूर्वक धीरे-धीरे कोशिश करके ही मिटाया जा सकता है। " यूरेका" का जो पत्र आपके इसी २८ तारीखके अंकमें प्रकाशित हुआ था, उसीके सन्दर्भ में मैं यह लिख रहा हूँ। उसने कई प्रश्न उठाये हैं। मैं अपनी बात दक्षिण आफ्रिकावाले प्रश्नतक ही सीमित रखूंगा। आज जनताके सामने प्रश्न प्रवासका नहीं है, बल्कि उन लोगोंकी आजीविका और दर्जेका है जो दक्षिण आफ्रिकामें वैध रूपसे बस गये हैं। साम्राज्यके नागरिकोंके निहित अधिकारोंको छोड़ना न लॉर्ड सिन्हाके हाथकी बात थी और न बीकानेर नरेशके। उन्होंने ऐसा कुछ किया भी नहीं। दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंको बसे हुए ५० सालसे ऊपर हो गये हैं। उन्होंने अपने जीवन-स्तरको नीचे गिराया हो, ऐसी कोई बात सामने नहीं आई। क्या " यूरेका" महोदयको याद है कि सर्वप्रथम भारतीय प्रवासियोंको आफ्रिकाके यूरोपियोंने ही बुलवाया था? मेरा मतलब गिरमिटिया भारतीयोंसे है। १८९४ में मैंने कहा था, और आज भी वही कहता हूँ कि जब नेटाल में ही ४००,००० हट्टे-कट्टे जूलू लोग मौजूद थे, और यदि मजदूर मालिकोंने अन्धाधुन्ध मुनाफा कमानेकी इच्छा न की होती तो इन लोगोंने खुशी-खुशी काम किया होता, फिर भी नेटालके लालची यूरोपीयोंने बहुत ही कम मजदूरीपर भारतसे गिरमिटिया मजदूरोंको नेटाल बुलाया। यह एक जबरदस्त गलती थी। अब क्या दक्षिण आफ्रिकाका इन मूल प्रवासियोंके वंशजों और उनके सम्बन्धियोंको भूखों मारकर बाहर निकालना उचित कहा जा सकता है?

  1. किसी व्यक्तिने "यूरेका" के नामसे 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में पत्र लिखकर गांधीजीको सलाह दी थी कि वे दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीयोंके अधिकारोंके लिए आन्दोलन न करें, और यह दलील दी थी कि भारतीयोंको वस्तुतः शिकायत करनेका कोई कारण नहीं है क्योंकि केवल यूरोपीयनोंने दक्षिण आफ्रिकाके लिए लड़ाई लड़ी थी और उसे अपने हाथमें रखा था। इसके उत्तर में गांधीजीने उक्त पत्र लिखा।