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खेड़ाकी कहानी

रूपमें स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस आरोपके उत्तरमें सर शंकरन नायरने चम्पारन[१] और खेड़ाकी[२] लड़ाईके दो अत्यन्त उपयुक्त उदाहरण दिये हैं; और सिद्ध कर दिया है कि दोनों स्थानोंपर रैयतके अधिकारोंकी रक्षा करनेवाला शिक्षित वर्ग ही था तथा [इन दोनों मामलोंमें] अधिकारियोंसे बड़ी ही मुश्किलसे न्याय प्राप्त किया जा सका। इसमें खेड़ाके सम्बन्धमें जवाब देते हुए बम्बई सरकारने लिखा है कि सरकारने वहाँ जो राहत दी थी वह अपनी ओरसे ही दी थी और इस बातको सिद्ध करनेके लिए सरकारने कुछ दलीलें भी दी हैं। माननीय श्री पारेखकी यह टिप्पणी उसीके उत्तरमें है। अब पाठक उनकी टिप्पणीके नीचे लिखे सारको समझ सकेंगे।

(१) पंचमहालके अतिरिक्त गुजरातके सब जिलोंमें लगानके आँकड़े अपनी उच्चतम सीमापर पहुँच गये हैं, अर्थात् सरकार प्रतिवर्षकी औसत उपजका बीस प्रतिशत ले लेती है।

(२) सन् १९०७ से पहले सरकार फसल खराब होनेपर भी रैयतको लगानमें बिलकुल माफी नहीं देती थी और न उसे मुल्तवी करती थी। अकालसे सम्बन्धित दो आयोगोंमें अन्तिम अर्थात् १९०१ के आयोगके बाद ही सरकारने लगान मुल्तवी रखने और माफी देने के नियम निर्धारित किये। इतना न्याय भी लोगों द्वारा आन्दोलन किये जानेपर ही मिल सका।

(३) १८९९ में जब अकाल पड़ा था तब भड़ौच और सूरत जिलोंमें अधिकारियों द्वारा किये गये अत्याचारोंके विरुद्ध बहुत शिकायतें की गई थीं। बम्बई विधान मण्डलके सदस्योंने विधान सभामें भी यह सवाल उठाया था। सरकारने शिकायतोंको गलत बताया। अन्तमें शिकायत करनेवाले व्यक्तियोंमें से एक सज्जनने इन जिलोंका दौरा किया, उन्होंने निजी तौरपर इन शिकायतोंकी जाँच की तथा गवाहियाँ इकट्ठी करके उन्हें प्रकाशित किया। उससे सरकारको जाँच करवानेके लिए विवश होना पड़ा। श्री मैकॉनिकीको जाँच करनेके लिए नियुक्त किया गया और उन्हें बहुत-सी शिकायतें उचित मालूम हुई। अन्ततः सरकारको १९०७ में लगान माफ और मुल्तवी करनेके सम्बन्धमें नियम बनाने पड़े।

(४) बम्बई सरकारने यह कहा है कि खेड़ा आन्दोलन शुरू होनेसे पहलेके वर्षोंमें वहाँ ऐसी कोई बात दिखाई नहीं दी जिससे पता चले कि फसलोंको नुकसान पहुँचा है। सरकारी रिपोर्टोंमें से उदाहरण देते हुए माननीय श्री पारेखने बताया है कि १९११से लेकर १९१६ तक लगातार खेड़ा जिलेके किसान कम या ज्यादा नुकसान उठाते रहे हैं। और फिर उन्हीं रिपोर्टोंके आधारपर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि सरकारको लगानकी वसूलीके लिए लोगोंके ढोर-डंगर बेचने आदि दमनकारी उपायोंका अधिकाधिक सहारा लेना पड़ा है।

(५) खेड़ा जिलेके लोगोंको न केवल फसल अच्छी न आनेसे होनेवाला नुकसान उठाना पड़ा बल्कि वहाँके किसानोंको प्लेग आदि रोगोंका प्रकोप भी सहना पड़ा।

  1. देखिए खण्ड १३
  2. देखिए खण्ड १४