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टिप्पणियाँ

गिरमिट प्रथाको हम कैसे तोड़ सकते हैं? फीजीके गोरोंपर हम दबाव कैसे डाल सकते हैं? इसका तो एक ही जवाब हो सकता है। जो कानून नीति-विरुद्ध है, अनीतिका पोषण करता है, वह कानून कानून नहीं है। ऐसे कानूनका आदर करना अनीतिमें हिस्सा लेने के समान है। [आश्चर्य तो यह है कि] ऐसा कानून - जिससे अनीतिको प्रोत्साहन मिला, इतने दिनोंतक कैसे टिक सका? यह एक उचित प्रश्न है। हमें आशा है कि गुजरातके प्रत्येक शहर और गाँवसे सरकारके पास समय रहते इस आशय के प्रार्थनापत्र पहुँच जायेंगे कि गिरमिट प्रथा एकदम बन्द कर दी जानी चाहिए। श्री एन्ड्रयूजने गिरमिट प्रथा बन्द किये जानेकी अन्तिम तारीख ३१ दिसम्बर निश्चित की है। इनके हाथमें सरकारी सत्ता तो नहीं है, लेकिन इनके हाथमें इससे कहीं अधिक बड़ी सत्ता है और वह सत्ता है इनकी दुःखी आत्माकी गम्भीर पुकार। हमारी कामना है, गुजरातका प्रत्येक स्त्री-पुरुष इस पुकारको सुने तथा अपना कर्तव्य निभाये।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, ७-९-१९१९

७१. टिप्पणियाँ

'नवजीवन' की जमानत

'नवजीवन' मासिकपर [सरकारकी] कृपादृष्टि थी - ऐसा कहा जा सकता है। लेकिन साप्ताहिक 'नवजीवन' इतनी कृपाका पात्र नहीं बन सका। प्रत्येक समाचारपत्रको अपने प्रकाशन-कालमें अथवा छापाखानेमें परिवर्तन करते समय नये सिरे से [अपने स्वामित्व आदिका] आवश्यक विवरण देना पड़ता है और उस समय बल्कि असल में तो चाहे जिस समय मजिस्ट्रेटको जमानत लेने अथवा पहलेसे ली गई जमानतमें बढ़ोतरी करनेका अधिकार है। 'नवजीवन' के साप्ताहिक होनेपर उसके सम्बन्धमें आवश्यक विवरण तो देना ही पड़ा और अब मजिस्ट्रेट महोदयने निम्नलिखित आदेश भेजा है।[१]

क्या 'नवजीवन' अपनी स्वतन्त्रता इसलिए खो बैठा कि श्री गांधीने 'नवजीवन'- का सम्पादक बनना स्वीकार कर लिया है।

पंच महालमें बेगार

यह बात अकसर सुननेमें आती है कि अन्य जिलोंकी अपेक्षा पंच महालमें[२] बेगारकी बुराई कुछ अधिक है। यह बात अदालतमें भी पहुँच चुकी है। गोधरामें[३]

  1. इसे यहाँ उद्धृत नहीं किया जा रहा है; आदेश में नवजीवनसे ५०० रुपयेकी जमानत माँगी गई थी।
  2. गुजरातमें।
  3. देखिए "भाषण : गुजरात राजनीतिक परिषद्", खण्ड १४