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सात

अन्य अखबारों में लिखकर गांधीजीने इस दिवसकी महत्तापर जोर दिया। उन्होंने मुख्य भारतीय नेताओंसे भी इस विषयमें पत्र-व्यवहार किया। दिसम्बरके मध्यमें सरकारने "शान्ति उत्सव" आयोजित करनेकी घोषणा की। गांधीजीने कहा कि जबतक मुसलमानोंकी मांग पूरी नहीं की जाती, भारतीय इसमें बिलकुल भाग नहीं ले सकते। उन्होंने जोर देकर कहा कि खिलाफतकी मांगके पीछे न्याय, ब्रिटिश मन्त्रियोंकी घोषणाओं तथा हिन्दुओं और मुसलमानोंके विचारकी शक्ति है। गांधीजीने खिलाफतको हिन्दू-मुस्लिम एकताका आधार भी बनाया, क्योंकि उनका यह विश्वास था कि यदि अपने मुसलमान भाइयोंकी आपत्तिकी घड़ी में हिन्दू उनका साथ देंगे तो ये दोनों जमातें पास-पास आ जायेंगी।।

यद्यपि रौलट अधिनियमके रद न होने के कारण देशमें असन्तोष बना हआ था और खिलाफतके विषय में मुसलमानोंके मनमें शंका थी, तो भी गांधीजी यही मानते रहे कि देश अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएँ ब्रिटिश सहयोगसे प्राप्त कर सकेगा। दिसम्बर १९१९ के पहले हफ्तेमें लन्दनकी लोकसभामें सुधार-विधेयकका तीसरा वाचन हुआ। गांधीजीका कहना था कि हमें इन सुधारोंसे इनकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि बहुतसे अधिकार उनके द्वारा मिल जाते हैं। गांधीजी चाहते थे कि इसके लिए मॉण्टेग्युको धन्यवाद दिया जाये। उनका खयाल था कि रौलट ऐक्ट और पंजाबके मामलोंमें न्याय प्राप्त करनेके इन सुधारोंके अनसार देशको कौंसिलमें योग्य प्रतिनिधि भेजने चाहिए और यदि इसके बाद भी न्याय नहीं मिलता, तो हमारा अन्तिम शस्त्र सत्याग्रह तो हमारे पास है ही। (पृष्ठ ३५३) दिसम्बर २४ को सम्राट्की जो घोषणा हुई, उसे भी गांधीजीने न्याय करने की इच्छाका एक लक्षण माना और इसलिए उन्होंने कहा कि देशका कर्तव्य है कि इन सूधारोको स्वीकार करके तदनुसार काम करे, ताकि वे सुधार सफल हो सक और आगे-पीछे इनमें पूर्ण उत्तरदायी शासन सौंपे जाने की योग्यता आ जाये। (पृष्ठ ३७२) गांधीजीके इस कथनका स्वाभाविक रूपसे ही यह परिणाम निकला कि उन्होंने अमृतसर कांग्रेसमें सुधारोंपर एक प्रस्ताव पेश किया जिसमें आशा व्यक्त की गई थी कि अधिकारी और जनता, दोनों परस्पर सहयोग करते हुए सुधारोंको इस तरह अमलमें लायेंगे जिससे शीघ्र ही पूर्ण उत्तरदायी सरकारकी स्थापना हो सकेगी।

गांधीजीके नेतत्वके विकासकी दष्टिसे इस अवधिकी सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, गांधीजी द्वारा बड़े धीरजके साथ जनताको सत्याग्रहके अभिप्रायसे पूरी तरह अवगत कराना। अप्रैल १९१९ की घटनाओंने उन्हें इस बातकी जरूरतका भरोसा दिला दिया था कि जनताको सत्याग्रहके पूरे अर्थका भान कराया ही जाना चाहिए। सरकार और जनता, दोनोंमें से एक भी यह नहीं समझे थे कि केवल राजनीतिक शस्त्रकी तरह ही नहीं, जीवनकी किसी भी समस्याको हल करने के लिए आत्मबलका प्रयोग करनेवाले 'सत्याग्रह' नामक उपायका पूरा अर्थ क्या है। यह एक ऐसा उपाय है जो जीवनके किसी भी क्षेत्रमें लागू किया जा सकता है। (पृष्ठ १२९) उसका मूल तत्त्व है अन्यायका शान्त भावसे, शालीनतापूर्वक कष्ट सहते हुए मुकाबला करना। स्वदेशी, समाज-सुधार और राजनीतिक सुधार उसके क्षेत्रमें आ जाते हैं। उन्होंने कहा कि यदि कोई भी परिवर्तन सत्याग्रहके बलपर होता है तो वह टिकाऊ होता