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लाला लाभूराम

होनेसे बच सकती तो मुझे बड़ी खुशी होती। परन्तु जो अन्याय मेरे देखने में आये हैं यदि मैं उनकी ओर सरकारका ध्यान नहीं दिलाता तो मैं अपने कर्त्तव्य से च्युत होता हूँ। ये अन्याय जहरकी तरह हैं; ये पूरी प्रणालीको दूषित कर रहे हैं। जहरको जरूर बाहर निकाल दिया जाना चाहिए, नहीं तो शरीर नष्ट हो जाता है। तो अब देखें कि लाला लाभूरामका मामला क्या है? पिछले सप्ताह पाठकोंके सामने उनके मामलेसे सम्बन्धित तथ्य प्रस्तुत किये गये थे। बचाव पक्षका सबूत परिपूर्ण नहीं लगता किन्तु फिर भी लाला लाभूरामके वकीलकी समझमें उतना ही सबूत कुल मिलता है। इसकी भी काफी सम्भावना है कि उनकी ओरसे दिये गये बयान अदालत में दर्ज नहीं किये गये क्योंकि अदालतका फैसला इस साभिप्राय वाक्यसे शुरू होता है कि "बचाव पक्ष की ओरसे दिये गये सबूत बेकार हैं।" सबूतकी लिखित टिप्पणियों में एक स्थानपर यह भी दर्ज है: "अभियुक्त सं० ९ की ओरसे की गई जिरह विषयसे सम्बन्धित नहीं है।" न्यायाधीशोंने शायद बचाव पक्षके सबूतोंको भी बेकार माना होगा! सौभाग्य से श्रीमती लाभूरामकी विस्तृत याचिका है; उसका सहारा लिया जा सकता है। किसी खण्डनके अभाव में इसे बचाव पक्षका एक सही सबूत मानना चाहिए।

करमचन्दकी तरह श्री लाभूराम एक गरीब और तरुण छात्र नहीं हैं; और न जगन्नाथ के समान एक मामूली व्यापारी ही। वे एक सिविल इंजीनियर हैं। मालनदेवी बताती हैं कि वे "लाहौरके एक बड़े प्रतिष्ठित और राजनिष्ठ परिवारके हैं। उनके कई रिश्तेदार सरकारी सेवामें उत्तरदायी पदोंपर हैं।" उन्होंने ग्लासगोमें अपनी शिक्षा सम्पन्न की। १९१२में वे इंग्लैंड से वापस आये। कुछ समय के लिए वे पुंछ में रियासत के इंजीनियर रहे। "जहाँ उन्होंने न केवल अपने कार्यसे ऊँचे अधिकारियोंको पूरी तरह सन्तुष्ट किया वरन् भरतीके काममें अधिकारियोंकी वास्तविक मदद की। वे किसी भी राजनैतिक संस्था अथवा किसी भी समाज या सभाके सदस्य नहीं थे, और न ही उन्होंने किसी भी प्रकारके प्रचार-कार्यमें हिस्सा लिया। वे कभी भाषण आदि सुनने नहीं जाते थे। उन्होंने हालकी हड़ताल में कोई हिस्सा नहीं लिया।" समाज में श्री लाभूरामकी स्थितिपर मैंने यहाँ कुछ विस्तारसे लिखा है; क्योंकि अगर इस मुकदमेको और कोई सहारा न मिले तो यह मुकदमा गवाहोंकी विश्वसनीयतापर ही निर्भर करेगा। कई अभियुक्तोंने जिनमें लाला लाभूराम भी थे, अपराधके समय उस स्थानपर न होनेकी बात कही, और जैसा कि मुझे एक मामलेके सम्बन्धमें टिप्पणी भी करनी पड़ी थी, अदालतें घटनास्थलपर न होनेकी दलीलको हमेशा काफी सन्देहकी दृष्टिसे देखती हैं। इसलिए यह जरूरी है कि इस मामलेका जो सबसे कमजोर पहलू हो सकता है उसीको ध्यान में रखकर इसपर विचार किया जाये और अदालतको इस बातका श्रेय दिया जाये कि उसने तमाम सबूतोंको निष्पक्षतासे जाँचा होगा। अतः मेरा निवेदन है कि जब-तक अदालतके पास बहुत अधिक और अकाट्य प्रमाण लाला लाभूरामके इस कथनके विरुद्ध न हों कि वे बादशाही मसजिदकी सभा में मौजूद नहीं थे - और उनके इस कथनके समर्थनमें अनेक प्रतिष्ठित लोगोंने गवाही दी है - तबतक अदालतको उनका बयान अवश्य स्वीकार करना चाहिए था और उन्हें ससम्मान बरी कर देना चाहिए था।