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सत्याग्रह

अपने पुरुषार्थ और अपनी आत्मापर लांछन लगता दिखाई पड़े उस समय कानूनका सविनय भंग करनेमें ही सत्याग्रह हो सकता है। इस तरहका सत्याग्रह न केवल सरकारके विरुद्ध, बल्कि समाजके विरुद्ध भी किया जा सकता है; यह पति-पत्नी, बाप-बेटे और मित्रोंके बीच भी हो सकता है। संक्षेपमें, प्रत्येक क्षेत्रमें और लगभग हरएक सुधारके लिए हम इस महान् शस्त्रका प्रयोग कर सकते हैं। यह शस्त्र प्रहारकर्त्ता तथा जिसपर प्रहार किया जाये उस व्यक्ति, दोनोंको ही पवित्र करनेवाला है। इसके सदुपयोगका परिणाम किसी भी समय बुरा हो ही नहीं सकता। इसमें हमेशा सफलता ही मिलती है। यदि सत्याग्रहके नामपर दुराग्रह किया जाये और उसका बुरा परिणाम निकले तो इसके लिए सत्याग्रहको दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

परिवारोंमें अनेक बार जाने-अनजाने सत्याग्रहका ऐसा प्रयोग होता ही रहता है; जैसे कि बेटा बापके अन्यायको महसूस करता है और उसे अस्वीकार करते हुए बाप जो सजा दे उसे आनन्दपूर्वक झेल लेता है तथा ऐसा करते हुए अन्तमें क्रूर बापको भी वशमें करके न्याय प्राप्त करनेमें सफल हो जाता है। लेकिन हम अपनी जड़ता के कारण पारिवारिक क्षेत्रके बाहर इस कानूनका उपयोग करने में हिचकिचाते हैं। इसलिए राजनैतिक और सामाजिक विषयोंमें सत्याग्रह करनेके प्रयोगको मैंने नया माना है। यह प्रयोग नया है - इसकी ओर हमारा ध्यान पहले-पहल स्वर्गीय टॉल्स्टॉयने अपने पत्र में खींचा था।

कुछ लोग यह मानते हैं कि सत्याग्रह तो केवल धार्मिक विषयोंके सम्बन्धमें ही किया जा सकता है। मेरा व्यापक अनुभव ठीक इससे विपरीत बात सिद्ध करता है। अन्य विषयों में उसका प्रयोग करके हम उनमें धर्मका संचार कर देते हैं और ऐसा करके हम वस्तुतः जल्दी विजय प्राप्त करते हैं तथा अनेक प्रकारके मिथ्याचारसे बच जाते हैं।

मेरा दृढ़ विश्वास है कि सत्याग्रहमें अर्थशास्त्रके बहुत सूक्ष्म नियमोंका पालन हो जाता है। इस अर्थ में मैं सत्याग्रहको व्यावहारिक प्रवृत्ति मानता हूँ। मैंने ऊपर सत्याग्रहका जो अर्थ बताया है, उस अर्थ में सत्याग्रह एक नवीन प्रवृत्ति है और इसलिए लोगों द्वारा उसे न पहचाननेके कारण स्वीकार करनेमें विलम्ब होना स्वाभाविक है और जिससे उत्तम परिणाम निकलनेकी सम्भावना हो, उसमें देर लगे तो आश्चर्य क्या? लेकिन जब सत्याग्रह हिन्दुस्तान में व्यापक प्रवृत्तिके रूपमें रूढ़ हो जायेगा तब जिन राजनैतिक अथवा सामाजिक सुधारोंको करने में अभी हमारा इतना समय लग जाता है उनमें उससे कहीं-कम समय लगा करेगा। राजा प्रजाके बीच जो अविश्वास और दूरी है वह मिट जायेगी और उसका स्थान विश्वास और प्रेम ले लेंगे। यही बात समाजके अन्यान्य अंगोंके बारेमें कही जा सकती है।

जनतामें इस प्रवृत्तिका अधिक विस्तार करनेके लिए केवल एक वस्तुकी आवश्यकता है। यदि नेता लोग इसके शुद्ध स्वरूपको पहचान लें और उसे प्रजाके सामने रखें तो मुझे विश्वास है कि प्रजा इसे स्वीकार करनेके लिए तैयार है। इसे पहचाननेके लिए सत्य और अहिंसापर विश्वास होना जरूरी है। सत्यका अर्थ करनेकी आवश्यकता नहीं, और यहाँ में अहिंसाके बहुत सूक्ष्म अर्थकी माँग भी नहीं कर रहा हूँ। यहाँ

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