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७८. स्वदेशीका तात्पर्य

[सितम्बर ११ १९१९][१]

स्वदेशी अर्थात् भारत में पैदा होनेवाली वस्तुओंका सब भारतीय ही उपयोग करें। इसमें आर्थिक स्वातन्त्र्य है, इस कारण स्वदेशी अर्थात् आर्थिक स्वतन्त्रता।

आर्थिक स्वतन्त्रताके बिना स्वराज्यका कोई अर्थ नहीं है; इसलिए स्वदेशी अर्थात् स्वराज्य भी कह सकते हैं।

लेकिन हिन्दुस्तानकी हालत इतनी गिर गई है कि हम अपनी जरूरतकी सब चीजोंका उत्पादन नहीं कर सकते।

इसलिए जिस वस्तुकी हमें सबसे अधिक जरूरत है, उसके सम्बन्धमें हमें स्वदेशीका पालन करना चाहिए।

वह वस्तु कपड़ा है; इसलिए भारतमें तैयार होनेवाले कपड़ेका उपयोग करना ही फिलहाल स्वदेशीका पालन करना है।

यह स्वदेशी धर्मं कोई हिन्दुओंके लिए अथवा बम्बईके लिए नहीं है। इसका पालन करना, हिन्दुस्तान में रहनेवाले हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, गोरे-काले, स्त्री-पुरुष, सबका कर्तव्य है।

हम सब स्वदेशी कपड़ेका ही इस्तेमाल करनेका व्रत लेकर अपनेको बाँध लें। हमारी जरूरतका सारा कपड़ा हिन्दुस्तानमें तैयार नहीं होता इसलिए हम उसका उत्पादन करें।

हम सब धनाढ्य नहीं हैं फिर भी यह हमारा फर्ज है कि हम सारा कपड़ा तैयार करें। इसलिए हमें मिलके अतिरिक्त अन्य तरीके से सूत और कपड़ा तैयार करना जान लेना चाहिए जिससे गरीब लोग भी इस महान् कार्यमें हाथ बँटा सकें। ऐसा साधन हमारा प्राचीन चरखा और करघा है।

प्रत्येक स्त्री अपने खाली समय में सूत कातना अपना धर्म समझे तो जनताको सूत रुईके दाम पड़े।

प्रत्येक पुरुष अपने फालतू समयमें सूत बुने तो लोगोंको रुईके दाम कपड़ा मिले। स्त्री और पुरुष दोनों ही उपर्युक्त दोनों कलाओंको सीख सकते हैं। कातना सीखने में एक सप्ताह लगता है और बुनना सीखने में आठ सप्ताह।

चरखा चार रुपये में मिलता है। करघेपर २५ से ४० रुपये तक खर्च आता है। इन दोनों चीजोंको हमारे बढ़ई आसानीसे बना सकते हैं।

जो रुई नहीं कात सकता उसे ४० तोले सूत कातनेमें अधिकसे- अधिक तीन आने मिल सकते हैं। जो मुफ्त सूत नहीं बुन सकता उसे २४ इंच पनहेकी एक गज खादी बुननेका कमसे कम एक आना मिल सकता है।

  1. यह लेख भी साँझ वर्तमानके पटेटी अंकमें प्रकाशित हुआ था। देखिये "सत्याग्रह", ११-९-१९१९ की पाद-टिप्पणी १