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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं यह कामना करता हूँ, कोई भी इस कायरतापूर्ण प्रश्नको न उठाये कि लोग कब कातें और कब बुनें।

जो पाठक स्वयं सूत कातने अथवा बुननेका निश्चय करेगा तो उसके काते-बुनेका उसको तथा जनताको उतना लाभ हुआ यह तो माना ही जायेगा। फिर जितना शौर्य तथा देशाभिमान हममें है उतना ही हम दूसरोंमें भी क्यों न मानें? 'आप भला तो जग भला' उसी तरह हम उद्यमी तो जग उद्यमी।

चालू प्रवृत्तिके अन्तर्गत फिलहाल कमसे कम दो हजार चरखे चलते हैं, तथा कमसे कम बारह सौ नये बुनकर हो गये हैं।

लेडी टाटा, लेडी पेटिट, श्रीमती जाईजी पेटिट आदि बहनोंने कातना आरम्भ कर दिया है अथवा करनेवाली हैं। हिन्दू बहनोंमें तो बहुतोंने सीख लिया है। इसलिए किसकी प्रशंसा करें और किसका मन दुखायें?

पाठक! आप भी, बहन हों अथवा भाई, अपने कर्त्तव्यपर विचार करें।

[गुजराती से]

नवजीवन, १४-९-१९१९

७९. पत्र : जे० किररको

सत्याग्रह आश्रम
साबरमती
सितम्बर १२, १९१९

प्रिय श्री क्रिरर,

आपका पत्र मेरे आश्रम पहुँचते-न-पहुँचते यहाँ आ गया था। समझमें नहीं आ रहा था कि जवाब क्यों नहीं मिल रहा है, परन्तु मुझे लगा कि आप मेरा आशय[१] ठीक नहीं समझे। खैर, आपके पत्रके लिए धन्यवाद। आपके पत्रको ध्यानमें रखते हुए मैंने वह लेख[२] प्रकाशित नहीं किया है। फिर भी मेरा खयाल है कि मैंने उसे पूरा-पूरा किसी समाचारपत्रमें[३] प्रकाशित देखा है। श्री पिक्थॉलने जिस लेखकी चर्चा की है मुझे ध्यान है कि वह भी अंग्रेजी समाचारपत्रोंमें उद्धृत किया गया था।

हृदयसे आपका,

श्री जे० क्रिरर

सरकारके सचिव
न्याय विभाग

पूना

हस्तलिखित दफ्तरी अंग्रेजी पत्र (एस० एन० ६८५०) की फोटो-नकलसे।

  1. आशय अगस्त ७, १९१९ के पत्रसे है।
  2. टर्कीपर मार्माडयक पिकथॉलका लेख। इस सम्बन्धमें किररने लिखा था : ..."यदि यह भारतमें प्रकाशित हुआ तो गलतफहमी फैलेगी।"
  3. न्यू एज