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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करनेवाली, गरीबोंकी मदद करनेवाली, हजारों स्त्रियोंके शीलकी रक्षा करनेवाली, हिन्दुस्तानको आसानीसे आर्थिक स्वतन्त्रता दिलवानेवाली इस महान् प्रवृत्तिमें आप अपनी सामर्थ्यके अनुसार भाग लेंगी।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, २१-९-१९१९

८३. विज्ञापन क्यों नहीं लेते?

श्री खांडवालाने ऊपर जो टीका की है वैसी टीका अन्य अनेक मित्रोंने भी की है, इसी कारण हमने इस पत्रको [यहाँ] स्थान दिया है। श्री खांडवालाको जो भय है वह निष्प्रयोजन है। विज्ञापन पैसे लेकर ही किया जा सकता है—ऐसी मिथ्या धारणा होनेके कारण सम्वाददाता यह मानता है कि स्वदेशी वस्तुओंको 'नवजीवन' के माध्यम से प्रोत्साहन नहीं मिल सकता। जिस वस्तुकी देशको जरूरत है उस वस्तुके मिलनेके स्थान आदिकी जानकारी देनेके लिए पैसा खर्च करनेकी कोई आवश्यकता नहीं होती। जब 'नवजीवन' की प्रवृत्ति भली-भाँति मालूम हो जायेगी और इसके कार्यकर्त्ता संगठित हो जायेंगे तब कोने-कोने में चलनेवाले हिन्दुस्तानके उद्योगोंकी खोज करके - इसमें अगर पैसे खर्च करने पड़ें तो खर्च करके भी - हम उनका विज्ञापन देंगे। पैसे लेकर जब विज्ञापन दिये जाते हैं तब विज्ञापनकी भाषा अथवा वस्तुको पसन्द करना तो लगभग असम्भव है। जो विज्ञापन हमारे देखने में आते हैं उनमें से ९९ प्रतिशत बेकार होते हैं। जिन विज्ञापनोंसे अधिक से अधिक धन मिलता है वे विज्ञापन तो सिर्फ दवाओंके होते हैं और दवाइयोंके विज्ञापनोंमें जो पाखंड और कभी-कभी वीभत्सता आदि देखने में आती है, वह देशके लिए अत्यन्त नुकसानदेह है, ऐसी हमारी मान्यता है। हम ऐसे अनेक मित्रोंको जानते हैं जिन्होंने दवाके विज्ञापनोंको पढ़नेके बाद उनका सेवन करके बीमारी मोल ले ली है। दवाके अलावा अन्य दूसरी वस्तुओंके विज्ञापनोंसे भी लोगोंको अनेक बार धोखा खाना पड़ा है, ऐसा किसने अनुभव नहीं किया है? हम भूलवश [यह] मानते हैं कि विज्ञापनोंके आधारपर हमें कम पैसोंमें समाचारपत्र मिल सकते हैं। लेकिन जिस वस्तुके सम्बन्धमें विज्ञापन दिये जाते हैं उस वस्तुको खरीदनेवाले भी हम [पाठक] लोग ही होते हैं और इस तरह अन्ततः हमें विज्ञापनोंका खर्च भी देना पड़ता है। दवाकी कीमत दवा बेचने में नहीं वरन् बोतल, कॉर्क, विज्ञापन और अन्तमें औषध बेचनेवालेके लाभ में रहती है। एक पैसेकी दवाका हम एक रुपया देते हैं। यदि विज्ञापन न दिये जायें तो वह घटकर [कमसे कम] आठ आने हो जाये।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, १४-९-१९१९