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८४. स्वदेशी बनाम मशीनें

[सितम्बर १४, १९१९]

श्री गांधीने एक पाठक द्वारा पूछे गये प्रश्नका उत्तर देते हुए स्वदेशीके साथ मशीनोंका तालमेल बैठने या न बैठनके बारेमें निम्न विचार व्यक्त किये हैं:

शुद्ध स्वदेशीका मशीनोंसे कतई-कोई विरोध नहीं है। स्वदेशीका आन्दोलन तो केवल विदेशी वस्त्रोंके इस्तेमालके खिलाफ है। मिलोंमें तैयार किये गये वस्त्र पहननेपर कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु मैं स्वयं मिलका बना कपड़ा नहीं पहनता और स्वदेशीकी प्रतिज्ञाके साथ मैंने यह स्पष्टीकरण भी अवश्य जोड़ दिया है कि हाथका कता और बुना कपड़ा पहनना ही प्रत्येक भारतीयका आदर्श होना चाहिए। यदि भारतके सौभाग्यसे कई करोड़ लोग इस आदर्शपर चलने लगें तो शायद मिलोंको कुछ नुकसान तो पहुँचेगा। परन्तु मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि समूचा भारत पवित्र मनसे ऐसा संकल्प कर ले तो हमारे मिल-मालिक भी उसका स्वागत करेंगे, उसकी पवित्रताका सम्मान करेंगे और उसके समर्थक बन जायेंगे। पर जमी-जमाई पुरानी आदतोंको छोड़ने में काफी समय लगता है। इस प्रकार देशमें मिल उद्योग और करघा, दोनोंके लिए गुंजाइश है। इसलिए चरखों और करघोंके साथ मिलोंकी संख्या भी बढ़ने दीजिए। और मेरा तो खयाल है कि चरखे और हथकरघे भी निःसन्देह एक प्रकारकी मशीनें ही हैं। चरखा बुनाई मिलका ही एक लघु रूप है। मैं चाहता हूँ ऐसी छोटी-छोटी सुन्दर-सी मिलें देशके घर-घरमें दिखने लगें। परन्तु देशको हाथके कताई-बुनाई उद्योगकी भी पूरी-पूरी आवश्यकता है। किसी भी देशमें कृषिके किसी एक अनुपूरक उद्योगके बिना किसानोंका काम नहीं चल सकता। और भारतमें तो कृषिका दारोमदार ही अनुकूल वर्षापर होता है। इसलिए यहाँ तो चरखा और हथकरघा कामधेनुओंके समान हैं। इस प्रकार यह आन्दोलन भारतके इक्कीस करोड़ किसानोंके हितके लिए है। यदि हमारे यहाँ देशकी आवश्यकताके लायक वस्त्र तैयार करनेके लिए पर्याप्त मिलें हों, तो भी दिन-दिन निर्धनताके अधिक शिकार बनते जानेवाले हमारे किसानोंके लिए कोई अनुपूरक उद्योग खड़ा करनेकी आवश्यकता बनी ही रहेगी, और जो करोड़ों जनोंके लिए उपयुक्त हो, ऐसा उद्योग हाथकी कताई और बुनाईका उद्योग ही हो सकता है। सवाल मिलों या मशीनोंके विरोध करनेका नहीं है। सवाल यह है कि हमारे देशके लिए सबसे अधिक उपयुक्त क्या है। मैं न तो देशमें मशीनोंके निर्माणके आन्दोलनका विरोध करता हूँ और न मशीनोंमें और-अधिक सुधार करनेका। मैं तो बस एक प्रश्नका उत्तर चाहता हूँ कि ये मशीनें हैं किस मतलबकी? रस्किनके शब्दों में मैं पूछता हूँ: क्या ये मशीनें ऐसी होंगी कि एक मिनटमें लाखों व्यक्तियोंको ध्वस्त कर दें या ऐसी होंगी कि बंजर भूमिको कृषि योग्य और उपजाऊ बना दें? यदि विधान बनाना मेरे हाथमें होता तो मैं विनाशकारी