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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करेंगे कि आन्दोलनकी धमकी से डरकर कोई भी सरकार अपने द्वारा निर्धारित नीतिसे - जिसे वह आवश्यक समझती हो - कदापि पीछे नहीं हट सकती।" इसके सर्वथा विपरीत तथा सही, प्रजा पक्षके महत्त्वको स्वीकार करनेवाला, राजा और प्रजा दोनोंकी उन्नति करनेवाला सिद्धान्त तो यह है कि, "जिस नीतिके विरुद्ध जनता भारी आन्दोलन खड़ा कर दे उसका सब सरकारोंको अवश्य त्याग कर देना चाहिए।" और इसी कारण में कहता हूँ कि जबतक रौलट अधिनियमका अस्तित्व है, अर्थात् जबतक सरकार लोकमतके विरुद्ध अपनी हठधर्मीपर कायम है तबतक इंग्लैंडसे चाहे कितने ही सुन्दर सुधार क्यों न आयें वे सब निरर्थक हैं। इसलिए वाइसराय महोदयकी ओरसे पेश किये गये भयंकर सिद्धान्तका उच्छेदन करवानेके लिए जनताको महान् प्रयत्न करना चाहिए। इतिहास भी वाइसराय महोदयके विरुद्ध है। मुझे पुराने उदाहरण ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं है। पंजाबके लोगोंकी नजरोंमें सम्मानित बाबू कालीनाथ राय, लाला राधाकृष्ण आदि कैदियोंकी सजामें जो कमी की गई है, वह प्रजा द्वारा किये गये आन्दोलनके फलस्वरूप ही हुई है। ऐसा न माननेका हमारे पास कोई कारण नहीं है कि सरकार द्वारा निर्धारित आवश्यक नीति तो सजा देने तथा उसे बहाल रखने में ही है। यदि पंजाब से लाला गोवर्धनदास न आये होते तो बाबू कालीनाथ राय आदिके सम्बन्धमें हमें पता ही न चलता तथा यदि जनता एक स्वरसे अपनी नाराजी व्यक्त न करती तो मेरी मान्यता है कि सजामें जो कटौती हुई है वह कभी न होती। लेकिन माननीय वाइसराय महोदय तो लोकमतके आगे झुकना लज्जास्पद मानते मालूम होते हैं। पश्चिममें तो अधिकारीवर्गको इच्छा या अनिच्छापूर्वक लोकमतके सामने झुकना ही पड़ता है, यह बात हम पाठशालामें सीखते हैं तथा पश्चिमसे आनेवाली खबरोंसे भी ऐसा ही पता चलता है। वाइसराय महोदयकी यदि ऐसी मान्यता है कि भारतमें जनमतको खुशी से स्वीकार करनेमें राज्यका अपमान होता है तो हम उन्हें आसानीसे बता सकते हैं कि वे भ्रममें हैं। रामचन्द्रने गुप्त रूपसे प्रकट किये गये लोकमतके अधीन होकर सीताका त्याग किया, इसका कवियोंने बहुत बखान किया है और इसी कारण आजतक रामचन्द्रकी पूजा की जाती है। जबतक हिन्दुस्तान में इस राजनीतिका [प्रजाके मतका आदर करनेकी राजनीतिका] पुनरुद्धार नहीं होता तबतक प्रजा कदापि शान्त एवं सुखी नहीं हो सकती। और वाइसराय महोदय ने जो सिद्धान्त प्रस्तुत किया है यदि वह उनका अपना न होकर सरकारका है तो सरकारको अपनी नीतिमें परिवर्तन करना चाहिए तथा प्रजा यह परिवर्तन करवायेगी।

लेकिन ये महोदय केवल सिद्धान्त पेश करके ही चुप नहीं रहे; उनका कहना है कि जिन्होंने आन्दोलन करनेकी धमकी दी थी उन्होंने अपनी "धमकीको व्यावहारिक रूप देना आवश्यक समझा, परिणामस्वरूप दुःखदायी घटनाएँ घटीं।" ऐसा कहकर ये महोदय खुद ही काजी बन गये हैं, यद्यपि इन्होंने ही न्याय करवानेके लिए आयोग नियुक्त किया है। यह खून-खराबी आन्दोलनके परिणामस्वरूप हुई अथवा सरकारकी गम्भीर भूलोंके कारण, इसका निर्णय तो आयोगको करना है। फिर भी वाइसराय