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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अ : यह तो सच है।

ब : भिक्षाके बदलेमें क्या तुम कुछ कहते भी हो?

अ : बहुत तो नहीं, लेकिन कभी-कभी उपदेश अवश्य देता हूँ। ब : तुमने कुछ अध्ययन किया है क्या?

अ : कुछ तो किया है। प्राकृतमें लिखे कुछ शास्त्र पढ़े हैं।

ब : इस तरह जीवन व्यतीत करने में क्या तुम सन्तोषका अनुभव करते हो?

अ : सन्तोष मिले तो फिर किसी और चीजकी क्या जरूरत है? मैं तो भटक रहा हूँ। मैं तो निस्सन्देह वही करना चाहूँगा जो मेरे लिये ठीक हो। आप कोई रास्ता बतायेंगे?

ब : मेरा यह कहनेका बहुत मन करता है कि तुम भगवे वस्त्र उतार दो। लेकिन इस समय हमारे लिये यह विचार करना अधिक उचित होगा कि तुम्हें कैसा आचरण करना चाहिए जिससे तुम इसके योग्य बनो।

अ : ऐसा हो तो उत्तम हो।

ब : तुम हिन्ददेवी के उपासक हो यह तो में जानता हूँ।

अ : इच्छा तो निस्सन्देह यही है।

ब : तुमने देवीको देखा है?

अ : मैं समझा नहीं।

ब : तुम्हारे मनमें हिन्ददेवीका कोई चित्र है या नहीं?

अ : मैंने सोचा नहीं।

ब : देखो मैं बताता हूँ: देवीने जापानी साड़ी पहनी है। उसकी पेरिसकी बनी अतलसकी चोली है जिसपर पेरिसकी ही बेल लगी है। उसके भालपर विदेशी बिन्दी है। उसकी कलाईमें विलायती चूड़ियाँ हैं। दाँयें हाथमें सोने-सी चमकती बाजरे-की तथा मोतियों-सी ज्वारकी बालियाँ हैं। उसके बाँयें हाथमें सड़े हुए और धूल-धूसरित सूतके धागे हैं। देवीका वर्ण निकट पड़े हुए गेहूँ-सा है, देवीका मुंह फीका पड़ गया है और ऐसा लगता है मानो वह रो रही हो। आसपास दुर्भिक्ष-पीड़ितों जैसे उसके बच्चे धीरे-धीरे खेतोंमें काम कर रहे हैं। बाँईं ओर चरखे पड़े हैं जिन्हें दीमक चाट गई है, उनकी माल टूट गई है तथा चमरख जर्जर हो गये हैं। उसके इर्द-गिर्द बैठी हुई हमारी स्त्रियाँ ऊँघ रही हैं। दो-चार बुनकर कुछ कपड़ा बुन रहे हैं।

अ : देवीका यह चित्रण तो ठीक ही है।

ब : तब फिर देवी तुमसे और मुझसे क्या कह रही है, यह तुम समझ सकते हो?

अ : देवी यही तो कह रही है कि हमें उद्यम करना चाहिए।

ब : यह तो है ही। जो यज्ञ (शारीरिक मेहनत) नहीं करता वह चोर है- यह 'गीता'का[१] वाक्य है। लेकिन क्या हमसे देवी और कुछ नहीं कहती?

अ : आप ही बताइये।

  1. तीसरा अध्याय, १२ वाँ श्लोक।