पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 16.pdf/१८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

९०. पत्र : महादेव देसाईको

सोमवार [ सितम्बर १५, १९१९][१]

भाईश्री महादेव,

तुम्हारा पत्र मिला। 'सोशल रिफॉर्मर' यहाँ नहीं आता, इसलिए मैं टीका पढ़ने से वंचित रहता हूँ। नटराजन्‌को लिखना कि वे उसकी एक प्रति आश्रम जरूर भेज दिया करें। अभी तो तुम्हीं भेज देना।

डायरेक्टरका नोट भेज रहा हूँ। पत्रोंके प्रकाशनके सम्बन्ध में तार दिया है। 'नवजीवन' के बारेमें जो टीका की गई है वह तो तुम्हें भेजनी ही चाहिए थी। प्रत्येक अंक में जो भी टीका प्रकाशित हो अवश्य भेजो। में स्वस्थ रहूँ अथवा अस्वस्थ, जबतक 'नवजीवन'के सम्पादनका भार मेरे कन्धोंपर है तबतक टीका देखे बिना कैसे गुजारा हो सकता है?

'यंग इंडिया' हम यहाँ दूसरे प्रेससे छपवा सकते हैं। दोनों ही पत्र एक प्रेस से प्रकाशित करवानेकी आवश्यकता मुझे प्रत्येक क्षण अनुभव होती रहती है । मैं इसकी तजवीज कर रहा हूँ।

तुम्हें गोमतीके लेखका अनुवाद करना चाहिए। इस लेखको मैं अद्भुत मानता "एक संवाद" उससे घटियापर महत्त्वपूर्ण है। साधुओंके लिए उत्तम है। हिन्ददेवीका चित्रण तो मेरे मनसे हटता ही नहीं है। 'नवजीवन'के द्वितीय अंकको बहुत अच्छा मानता हूँ। छापेकी भूलें इतनी कम है कि क्षम्य हैं। कार्यकर्ता घड़ी-भर भी चैनसे नहीं बैठे!

अपने स्वास्थ्यका ध्यान रखना। तुमपर नानालालका[२] लेख लागू होता है । उनके विचार अंग्रेजी में भी प्रस्तुत करने लायक हैं।

नानालाल मुझे पहचान ही नहीं पाये हैं। सत्याग्रहको तो समझे ही नहीं हैं। मेरी तपश्चर्याकी अतिशय प्रशंसा की गई है। ब्रह्मचर्यको आकाशपर चढ़ा दिया है। मुझे तो इन दोनोंमें अपूर्णता दिखाई देती है। पन्द्रह वर्षकी आयुसे जिसने अपनी स्त्रीके साथ विषय-भोग किया तथा जो तीस वर्षतक वैसा ही जीवन व्यतीत करता रहा उसके ब्रह्मचर्यकी क्या प्रशंसा करना? "सौ-सौ चूहे खाय बिलारी चली हज्जको।" ब्रह्मचर्य का पालन तो देवदास करता दिखाई पड़ रहा है। मेरी तपश्चर्याका तो मेरे लिए कोई मूल्य ही नहीं है। मुझे तो यह सहज जान पड़ती है। मेरा सत्य [अवश्य]

  1. यह पत्र सम्भवतः १४-९-१९१९ को रविवारके नवजीवनमें प्रकाशित "एक संवाद", के १४-९-१९१९ तुरन्त बाद लिखा गया था। देखिए पृष्ठ १४७
  2. प्रमुख गुजराती कवि (१८७७-१९४६); संकेत "सामाजिक क्लान्ति और नवजीवन" की ओर है जो नवजीवन (७-९-१९१९) के प्रथम अंकसे लेखमालाके रूपमें क्रमशः प्रकाशित हुआ था। लेख में राष्ट्रीय जीवन में आनन्दतत्त्वको आवश्यकतापर बल दिया गया था।