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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरा ही है, ऐसा मुझे लगता है। मेरी अहिंसा अत्यन्त उग्र है तथा इन दोनोंके संगमसे जिस सत्याग्रह की उत्पत्ति हुई है वह निःसन्देह अवर्णनीय है। उसे नानालाल कैसे समझे? तुम समझने का प्रयत्न कर रहे हो। इन दोनों वस्तुओंका मुझमें दिन-प्रतिदिन विकास होता जाता है। यह मुझे कहाँ ले जायेगा, सो नहीं जानता। नानालालकी कवितामें तो झाँकी ही नहीं है। उसमें उनका प्रेम झलक रहा है, लेकिन ज्ञान नहीं। तपश्चर्या, ब्रह्मचर्य आदि साधन हैं, सत्याग्रह साध्य है। सत्य ही मोक्ष है। जो मोक्षका आग्रह नहीं करता, वह मनुष्य नहीं पशु है।

अब तुम जितना चाहते थे उससे अधिक लिख गया हूँ इसलिए बन्द करता हूँ।

बापूके आशीर्वाद

[पुनश्चः]

सोराबजीकी वसीयतके अभाव में में कष्टमें हूँ, मुझे इस संकटसे मुक्त करो। वसीयत कहाँ होगी? रुस्तमजी सेठका दूसरा तार आया है।

गांधीजी स्वाक्षरों में मूल गुजराती पत्र (एस० एन० ११४०६) की फोटो-नकलसे।

९१. लाभसिंह[१]

अत्यन्त विनम्रतापूर्वक निवेदन है कि महामहिमके इस प्रार्थीके साथ जो अन्याय हुआ है उसमें उसकी सजा कितनी ही क्यों न घटा दी जाये उससे प्रार्थीको न तो कोई सान्त्वना मिलेगी और न उस अन्यायका समुचित निराकरण होगा, और न न्यायके उद्देश्यको पूति ही हो सकेगी।

यह उद्धरण श्री लाभसिंह, बैरिस्टर-एट-लॉके सबसे हालके प्रार्थनापत्र से लिया गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह प्रार्थनापत्र पढ़कर पाठकके हृदयमें सहानुभूति और सराहनाके भाव उठे बिना नहीं रहेंगे। सहानुभूति इसलिए कि उनके साथ अन्याय हुआ है, और सराहना इसलिए कि इस युवा बैरिस्टरके स्वाभिमानको जेल भी नहीं झुका सकी है। वह दयाकी भीख नहीं माँगता; अगर मिल सके तो केवल न्यायकी माँग करता है। परन्तु वाइसराय महोदयकी टिप्पणीके बावजूद, न्यायकी प्रगति बहुतही धीमी है और बड़े-बड़े उच्चाधिकारियोंतक में न्याय करनेकी इतनी अनिच्छा है कि न्याय चाहनेवाला व्यक्ति उसकी आशा लगभग छोड़ ही देता है। एक आयोगकी नियुक्ति के लिए माननीय पंडित मालवीयजीके प्रस्तावके उत्तरमें, सर एडवर्ड मैकलेगनका भाषण देखिए। उन्होंने "गत अप्रैलकी घटनाओंकी गम्भीरताको कम आँकने "की प्रवृत्तिके विरुद्ध दी गई वाइसरायकी चेतावनीका हवाला दिया है। वे आगे कहते

  1. मूल शीर्षकमें "एम० ए०, एलएल० बी० (कैन्टन), बैरिस्टर-एट-लों" शब्द भी जुड़े हुए हैं।