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९५. प्रस्ताव : खिलाफत सभामें

[बम्बई
सितम्बर १८, १९१९]

जुमा मस्जिदमें की गई मुसलमानोंकी यह सभा टर्की [साम्राज्य] के विघटन और खलीफाके नियन्त्रणसे पाक जगहोंके हटा दिये जानेका जो खतरा दिखाई दे रहा है, उसके प्रति गहरी चिन्ता व्यक्त करती है और भरोसा करती है कि महामहिमके मन्त्रिगण, परममाननीय लॉयड जॉर्जने टर्कीके बारेमें जो वचन दिया था, उसे निभायेंगे और इस प्रकार महामहिमकी मुस्लिम प्रजाके मनमें फिर विश्वासका संचार करेंगे।

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें अंग्रेजी मसविदे (एस० एन० ६९५२) की फोटो-नकलसे।

९६. दण्डविमुक्ति विधेयक

बहुचर्चित दण्डविमुक्ति विधेयक (इंडेम्निटी बिल) अब जनताके सामने आ गया है। मैं देख रहा हूँ कि इस विधेयक पेश किये जानेकी अब भी आलोचना की जा रही है। सर चन्दांवरकर भी पूरी तौरपर आलोचकोंकी पंक्ति में शामिल हो गये हैं। उनको कानूनकी बड़ी अच्छी जानकारी है। उनका मत है कि संवैधानिक विधि और पूर्वदृष्टांत दोनोंकी यही अपेक्षा है कि दण्डविमुक्ति विधेयक तो केवल इंग्लैंड की संसद ही पास कर सकती है, स्थानीय विधान सभाएँ नहीं, और इंग्लैंड की संसद भी तभी पास कर सकती है जब एक शाही आयोग उसकी आवश्यकताके बारेमें संसदको प्रतिवेदित करे। सर नारायण चन्दावरकर ने अपने मत के समर्थन में डैसीका मत उद्धृत किया है। इसलिए मैं उससे भिन्न अपनी एक राय अत्यन्त विनम्र भावसे ही व्यक्त कर सकता हूँ। मैं संसदीय हस्तक्षेपका बड़ा आलोचक हूँ। इसमें संदेह नहीं कि कभी-कभी संसदीय हस्तक्षेप बड़ा लाभकारी भी सिद्ध होता है, परन्तु मैं तो एक ऐसे समयकी बात सोच रहा हूँ - जो बहुत दूर नहीं है, जब हमारे देशमें एक ऐसा विधान-मंडल होगा जो जनताके लिए महत्त्वपूर्ण सभी बातोंमें जनताके प्रति पूरी तौरपर उत्तरदायी होगा। तब संसदीय हस्तक्षेप हमारे लिए उतना ही असहनीय बन जायेगा जितना कि वह आस्ट्रेलिया, कनाडा या दक्षिण आफ्रिकाके लिए है। राष्ट्रीय चेतनाका पूरा-पूरा विकास हो जानेपर, हम इंग्लैंड की संसदके पिछलग्गू बनकर नहीं रहेंगे। यदि आवश्यक हुआ तो दूसरोंकी भाँति हम भी कलह, क्रोध और द्वेषके बीचसे गुजरते हुए आत्मिक शुद्धि और शान्तिकी मंजिल तक पहुँच जायेंगे। मैं जानता हूँ कि आम जनता द्वारा उचित ढंगसे चुने हुए प्रतिनिधि जब सरकारी अधिकारियोंके क्रोधके भय और उनकी प्रसन्नताके