पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 16.pdf/१९७

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टिप्पणियाँ

है। हमें उम्मीद है कि ग्राहक अथवा पाठक इसे स्वयं पढ़ने में ही सन्तोष नहीं मानेंगे बल्कि अपने परिवारके अशिक्षित सदस्योंको भी पढ़कर सुनायेंगे। हम तो इससे भी अधिक माँग करना चाहते हैं। हम जानते हैं कि ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो सप्ताह में एक आना भी खर्च नहीं कर सकते। और उनसे भी ज्यादा संख्या ऐसे लोगोंकी है जिन्हें पढ़ना तो आता है लेकिन जो यह जाननेको बिलकुल उत्सुक नहीं हैं कि देशमें क्या हो रहा है। वे समाचारपत्र पढ़ना नहीं चाहते और पढ़ते भी हैं तो ऐसी चीज़ जिसमें कुछ श्रम नहीं उठाना पड़ता। हमारे वे उत्साही पाठक जिन्हें 'नवजीवन' के उद्देश्य पसन्द हैं इन दोनों वर्गोंतक 'नवजीवन' का सन्देश पहुँचा सकते हैं। उन्हें हमारा सुझाव है कि वे 'नवजीवन' क्लबों अथवा मंडलोंकी स्थापना करें। इन मण्डलोंका यही एक सीमित उद्देश्य होना चाहिए कि उनके सदस्य अमुक दिन, अमुक समय और अमुक स्थानपर इकट्ठे होंगे और शुरूसे अंततक 'नवजीवन' को पढ़ेंगे तथा उसपर चर्चा करेंगे। यह कार्य अत्यन्त आसान है लेकिन इसके बहुत महत्त्वपूर्ण परिणाम हो सकते हैं। प्रत्येक पाठक यदि डायरी लिखे तो वर्षके अन्तमें इनका अन्दाजा लगा सकेगा। शुद्ध विचारों, शुद्ध कार्यों तथा शुद्ध भावोंका जनतापर गहरा असर पड़ता है। शुद्ध भावनाओंको हम अपनी सहचारिणी बना लें तो उनके द्वारा हम इस संसारके विकट मार्गको आसानीसे पार कर सकते हैं। हम इस बातका निरन्तर प्रयास करते रहेंगे कि 'नवजीवन' किसी भी अनुचित अथवा नीच भावनाका, झूठी खबर अथवा अविवेकपूर्ण भाषाका माध्यम न बने। इसमें हमसे भूल न हो, इस बातका दायित्व हम अपने पाठकोंको सौंपते हैं। हमारी मान्यता है कि पाठक वर्गके साथ हमारा सम्बन्ध व्यापारिक नहीं बल्कि अत्यन्त घनिष्ठ और नैतिक है।

ठीक किया

कुछ समय पहले जब श्री गांधी गोधरा गये थे तब उनके सुनने में आया था कि पंजीयित वाचनालयोंमें अमुक समाचारपत्र नहीं आने दिये जाते। इन निषिद्ध पत्रोंमें बहुत-से लोकप्रिय पत्र भी हैं। इस विषयपर 'यंग इंडिया' में चर्चा की गई थी तथा इस सम्बन्धमें श्री गांधीने शिक्षा विभागके मुख्याधिकारीके साथ पत्र-व्यवहार भी किया था। यह पत्र-व्यवहार 'यंग इंडिया' में प्रकाशित हुआ है और उससे पता चलता है कि पंजीयित वाचनालयोंमें समाचारपत्रों [के प्रवेश] से सम्बन्धित वह प्रतिबन्ध हटा दिया गया है। इस विवेकपूर्ण निर्णयके लिए हम शिक्षा-विभागके मुख्याधिकारीको बधाई देते हैं।

यह निःसन्देह वांछनीय है कि जनताके पास सत्साहित्य ही पहुँचे। विषैले साहित्य से जनता दूर रहे यह भी स्पृहणीय है, लेकिन ऐसे सुधार बलात् नहीं कराये जा सकते। जनता क्या पढ़ेगी, इसका आधार उसको मिली शिक्षापर निर्भर करता है; अर्थात् अखबारों तथा किताबोंपर भारी प्रतिबन्ध लगाकर जनताकी रुचिको परिष्कृत नहीं किया जा सकता। और इसी तरह अमुक पुस्तकें अथवा अखबार पढ़नेकी मनाही करके वफादारीकी शिक्षा भी नहीं दी जा सकती। जिस राष्ट्रकी जनताके साथ हमेशा न्याय किया जाता है और जिसकी ज्ञानवृद्धि होती रहती है वह प्रजा स्वभावतः