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याचिकाएँ इस तरह न लिखें

किसी कठिनाईके हिमालय प्रदेशमें जमनोत्रीतक जानेवाले हजारों तीर्थ यात्रियोंकी आवश्यकताओं की पूति सेवाको भावनासे की जाती है, किसी व्यावसायिक लाभके लिए नहीं। हमारी अनुपम वर्ण- व्यवस्था समाज-सेवाके एक विशाल संगठनका उदाहरण है। स्वर्गीय सर डब्ल्यू डब्ल्यू० हंटर कहा करते थे कि भारतके बारेमें एक उल्लेखनीय बात यह है कि उसे [पाश्चात्य देशोंकी भाँति] दरिद्र-रक्षा कानूनोंकी कोई आवश्यकता ही नहीं। बीमारियों, मृत्यु और निर्धनताके समय जातियोंकी ओरसे आवश्यक सेवा नियमित रूपसे आयोजित की जाती है। श्री गांधीने कहा कि में वर्ण व्यवस्थाकी प्रशंसा नहीं करना चाहता। उसके वर्तमान स्वरूपमें कुछ त्रुटियाँ और कुछ ज्यादतियाँ मौजूद हैं। उदाहरण देकर अपनी यह बात समझाने के लिए ही मैंने उसका उल्लेख किया है कि भारत में समाज-सेवाको एक कर्त्तव्य के रूपमें लिया जाता है। दुर्भाग्यकी बात है कि हमारी अधिकांश प्राचीन संस्थाएँ रूढ़िग्रस्त हो गई हैं। मेरे कहनेका अर्थ यह था कि हमें प्राचीन संस्थाओं और उनके तौर-तरीकोंका अध्ययन करना चाहिए, उनमें नये प्राण फूंककर उनको एक नये आधारपर संगठित करना चाहिए, क्योंकि नई परिस्थितियों के उपयुक्त बननेके लिए यह आवश्यक हो गया है। यदि हम सभी पुरानी चीजों को अविवेकपूर्ण ढंगले ठुकरा देंगे तो हो सकता है कि हम गलती कर बैठें।

[अंग्रेजीसे]

यंग इडिया, ८-१०-१९१९

१०५. याचिकाएँ इस तरह न लिखें

केसरमलकी सोलह वर्षीय पत्नी मायादेवीने अपने इक्कीस वर्षीय युवा पतिकी रिहाईके लिए प्रार्थनापत्र दिया है। प्रार्थनापत्र बड़ा ही मार्मिक और सजीव है। उसके हार्दिक अनुरोधपर ही मैं उस प्रार्थनापत्र को अन्यत्र छाप रहा हूँ। उसमें की गई प्रार्थना पूर्णतः न्यायोचित लगती है, परन्तु इतने अच्छे मामलेको एक घटिया किस्मके वकीलने बिगाड़कर रख दिया है। प्रार्थनापत्र तो मायादेवीका ही है, पर यह सर्वथा स्पष्ट है कि जिसने उसे लिखा है निस्सन्देह उसने एक सर्वथा उचित आधारपर और अपनी समझसे एक घोर अन्यायके विरुद्ध, किन्तु क्रोधके आवेशमें लिखा है। क्रोध तो एक प्रकारका छोटा-मोटा पागलपन ही होता है, और अस्थायी पागलपनकी झोंकमें वकीलोंने कई बार बड़े उच्चादर्शपूर्ण उद्देश्योंको हानि पहुँचा दी है। प्रार्थनापत्रमें बेमतलब विषयों और निन्दात्मक वाक्योंकी भरमार है। उस शोक में डूबे प्रदेशसे आये कई प्रार्थनापत्र मैंने देखे हैं। उनमें बड़े ही सीधे कामकाजी ढंगसे अपनी बातें कही गई थीं, इसलिए उनकी छानबीन और विवेचन करनेमें मुझे आनन्द आया; परन्तु इस प्रार्थनापत्र की आवेशपूर्ण, क्रोधभरी भाषाके प्रवाहसे अपनेको अछूता रखते हुए एक सही निष्कर्ष निकालने में मुझे बड़ी मेहनत करनी पड़ी। मैं नहीं जानता कि प्रार्थनापत्र