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याचिकाएँ इस तरह न लिखें

रहती हो या यदि लोग उससे बचना चाहें तो न जानेसे भी काम चल सकता हो। इसलिए यह तो सवाल नहीं ही उठता कि लोग उस घटना स्थलके पाससे होकर गुजरना चाहते हैं या नहीं। वहाँसे जाये बिना तो गुजर ही नहीं है। वह स्थान है ही ऐसा। और उस दिन की हिंसापूर्ण कार्रवाईमें जिन लोगोंका बिलकुल कोई हाथ नहीं था, उन लोगोंको भी वहाँसे घुटनों और हाथोंके बल रेंगकर निकलनेके लिए क्यों विवश किया जा रहा है? जनरलने अपने आदेशको इस प्रकार उचित ठहराया है:

मैं समझता हूँ कि परिषद् इस बात से सहमत होगी कि अमृतसर में जिस अधिकारीके हाथमें कमान थी उसका यह विचार सर्वथा स्वाभाविक था कि आम जनताको पूरी तौरपर यह समझानेके लिए कुछ असाधारण किस्मके कदम उठाना जरूरी है कि एक अकेली, अरक्षित महिलाके खिलाफ ऐसी हिंसापूर्ण कार्रवाई सहन नहीं की जायेगी। यूरोपीय महिलाओंकी रक्षा करनेके सेनाके संकल्पसे समूची आम जनताको अवगत कराने और उसकी पूरी-पूरी गम्भीरता समझने के लिए कुछ करना आवश्यक है।

कुरुचिका जीता-जागता उदाहरण है वह पूराका-पूरा भाषण। उसे पढ़कर देखना चाहिए। सर हैवलॉक हडसनकी तरहके भाषणोंसे कटुता और वैमनस्य बढ़ता है और सेना द्वारा की जानेवाली ज्यादतियोंको खुली छूट मिलती है। सच्चे बहादुर सैनिकों को यह शोभा नहीं देता और इसलिए मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि इतने उच्च पदाधिकारी भी ऐसे प्रतिहिंसक कार्योंकी पैरवी करेंगे। यूरोपीय महिलाओंको सुरक्षा प्रदान करनेके और भी उत्तम तरीके मौजूद हैं। और क्या भारतमें उनका जीवन सचमुच इतने अधिक खतरे में है कि उनको विशेष तौरपर रक्षा प्रदान करनेकी आवश्यकता हो? यूरोपीय महिलाओंका जीवन किसी भी भारतीय महिलाके जीवनसे अधिक पवित्र क्यों माना जाता है? क्या यूरोपीय और भारतीय दोनों ही महिलाओंकी प्रतिष्ठा, उनका सम्मान और उनकी भावनाएँ समान नहीं हैं? यदि एक ब्रिटिश सैनिक सम्राट्की सेनाकी वर्दी पहनकर वाइसरायकी परिषद् में खड़ा होकर भारतीय जनताके लिए ऐसे अपमानजनक शब्दोंका प्रयोग करने लगता है जैसे कि लेफ्टिनेंट जनरल सर हैवलॉक हडसनने किये हैं, तो फिर ब्रिटिश ध्वजका मूल्य ही क्या रह जाता है? मैं अब भी दण्डविमुक्ति विधेयक (इंडेम्निटी बिल) के विरोधमें उठाई गई आवाजका समर्थन नहीं करता। भारतीय जनताके अधिक अनुभवी नेताओंके प्रति पूरा सम्मान मेरे दिलमें है, फिर भी मेरी अपनी यही राय है कि दण्डविमुक्ति विधेयकका विरोध करना यदि अधिक कुछ नहीं तो कार्य-नीतिकी दृष्टिसे बुरा तो था ही। परन्तु यदि जनरल हडसनके भाषणमें परिषद्के अंग्रेज सदस्योंकी भावनाएँ ही व्यक्त की गई हैं, जो मुझे लगता है सचमुच व्यक्त की गई हैं, तो लॉर्ड इंटरकी समिति और उस जैसी अन्य समितियोंसे क्या नतीजा निकलनेवाला है इसके बारेमें हमारे मनमें गम्भीर दुश्चिन्ताएँ पैदा होने लगती हैं।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, २७-९-१९१९