विचार नहीं करता, उसका परिचय और अनुभव नहीं प्राप्त करता तबतक उसमें कोई सुधार होना सम्भव नहीं है।
किसानों की स्थितिके सम्बन्धमें हमारे नेताओंने कुछ जानकारी इकट्ठी की है, थोड़ा लिखा भी है और विधान सभामें चर्चा भी की है, लेकिन उसका निजी अनुभव न होनेके कारण उसमें वास्तविक सुधार नहीं हो सका।
सरकारी अधिकारी किसानोंकी सही स्थिति से निःसन्देह परिचित हैं, लेकिन अधिकारियों की स्थिति सचमुच दयनीय है। इन्होंने किसानोंको [सदा] अधिकारियोंकी दृष्टिसे अर्थात् लगान वसूल करनेवाले अधिकारियोंकी दृष्टिसे देखा है। जो अधिकारी अधिक से अधिक रकम उगाह सकता है उसकी पदोन्नति की जाती है, उसे खिताब दिया जाता है और वह योग्य अधिकारी माना जाता है। अमुक वस्तुकी जाँच हम जिस दृष्टिसे करते हैं उसके अनुसार ही वह हमें दिखाई पड़ती है। इसलिए जबतक कोई व्यक्ति किसानोंके दृष्टिकोणसे किसानोंकी स्थितिकी जाँच नहीं करता तबतक उसका हू-ब-हू चित्र हमारे सामने नहीं आ सकता।
फिर भी कुछ हदतक हम उसकी स्थितिको जान सकते हैं। हिन्दुस्तान निर्धन [देश] है। हिन्दुस्तानमें लाखों व्यक्तियोंको एक ही जून खानेको मिलता है। इसका अर्थ असल में यह है कि हिन्दुस्तानके किसान कंगाल हैं और इन किसानों में से अधिकांशको एक ही जून खानेको मिलता है। ये किसान कौन हैं? हजारों बीघे जमीनका मालिक भी किसान है, जिनके पास एक बीघा जमीन है वह भी किसान है और जिनके पास एक भी बीघा जमीन नहीं होती लेकिन जो दूसरेके अधीन रहकर खेती करता है और हिस्से में पेटके लिए अन्न-भर पाता है वह भी किसान! और अन्तमें चम्पारनमें मैंने ऐसे भी हजारों किसान देखे हैं जो साहब लोगों और हम लोगोंकी सिर्फ गुलामी ही करते हैं और उससे जन्म-भर छुटकारा नहीं पा सकते। इन भिन्न-भिन्न प्रकारके किसानों की सही-सही संख्या हमें कभी भी ज्ञात होनेवाली नहीं। जनगणनाकी रिपोर्ट तैयार करनेका भी एक तरीका होता हैं। किसानोंकी स्थितिकी जाँच करनेके उद्देश्यसे यदि यह रिपोर्ट तैयार की जाये तो उससे हमें ऐसी बातें मालूम हों जिससे हम आश्चर्य में पड़ जायें और हमें शर्मिन्दा होना पड़े। किसानोंकी दशा सुधरनेके स्थानपर दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जाती है, ऐसा मेरा अनुभव है। जो खेड़ा जिला समृद्ध माना जाता है वहाँ भी जिन लोगोंने अच्छे घर बनवाये थे वे अब उनकी मरम्मत नहीं करवा सकते। उनके चेहरोंपर आशाकी कोई किरण नहीं है। उनके शरीर जैसे होने चाहिए वैसे मजबूत नहीं हैं। उनके लड़के पस्तहिम्मत नजर आते हैं। प्लेगने गाँवों में प्रवेश पा लिया है; छूतके अन्य रोगोंसे भी लोग पीड़ित हैं। बड़े-बड़े पाटीदार कर्जके भारसे कुचले हुए हैं। मद्रासके गाँवोंमें जाते हुए तो कँपकँपी ही छूटती है; हालाँकि जैसा गहरा अनुभव मुझे खेड़ा और चम्पारन जिलोंका है वैसा मद्रासका नहीं, फिर भी वहाँके जो गाँव मैंने देखे हैं उनकी स्थिति से मुझे मद्रास के किसानोंकी दारिद्र्यका ठीक अन्दाज हो सकता है।
हिन्दुस्तान के लिए यह सबसे अधिक महत्त्वका प्रश्न है। इस समस्याका समाधान किस तरह हो सकता है? किसानोंकी हालत किस तरह सुधर सकती है? इसपर हमें