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जगत् का पिता - २

उपयोगी वृक्ष और फल-फूलादिके पेड़-पौधे होने चाहिए। उसमें एक धर्मशाला, स्कूल और एक ऐसा छोटा अस्पताल होना चाहिए जिसमें रोगियोंकी तीमारदारी की जा सके। लोगोंके नित्य कर्मके लिए ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे हवा, पानी और रास्ते आदि गंदे न होने पायें। प्रत्येक गाँवके लोगोंमें अपने अन्न-वस्त्र आदि गाँवमें ही पैदा करने अथवा बनानेकी शक्ति होनी चाहिए। उनमें चोर-लुटेरों तथा व्याधियों आदिके भयसे अपने को बचानेकी शक्ति होनी चाहिए। एक समय भारतके गाँवोंमें बहुधा ये सब गुण हुआ करते थे। यदि किसी गाँवमें उस समय ये बातें मुहैया नहीं थीं तो सम्भवतया उस समय उनकी उस गाँव में जरूरत नहीं थी। अस्तु, मैंने ऊपर जो बातें गिनाई हैं गाँवों में उनकी व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए, इस सम्बन्धमें किसीको शंका नहीं हो सकती। ऐसे गाँव ही आत्म-निर्भर कहलाते हैं; और यदि हमारे सारे गाँव ऐसे हो जायें तो हिन्दुस्तान अन्य दूसरी व्याधियोंसे इतना पीड़ित न रहे।

ऐसी परिस्थिति असम्भव तो है ही नहीं; बल्कि इसे जितना मुश्किल हम मानते हैं, यह उतनी मुश्किल भी नहीं है। यह कहा जाता है कि हिन्दुस्तान में साढ़े सात लाख गाँव हैं; इस दृष्टिसे प्रत्येक गाँवकी औसत आबादी ४०० है। ज्यादातर गाँवोंमें तो १००० से भी कमकी आबादी है। मेरी दृढ़ मान्यता है कि कम आबादीवाले ऐसे गांवोंकी व्यवस्था करना अत्यन्त सहल है। उसके लिए लम्बे-लम्बे भाषणोंकी, विधान सभाकी अथवा कानून गढ़ने की जरूरत नहीं होती। सिर्फ एक ही बातकी आवश्यकता होती है और वह है अँगुलीपर गिनने लायक शुद्ध भावसे कार्य करनेवाले स्त्री-पुरुषोंकी। वे लोग अपने आचार और सेवाभावसे प्रत्येक गाँवमें आवश्यक परिवर्तन करवा सकते हैं। उन्हें रात-दिन काममें जुटे रहना पड़ेगा, सो बात भी नहीं है। वे अपनी आजीविकासे सम्बन्धित कामको करते हुए भी सेवा-व्रत धारण कर अपने-अपने गाँवोंमें महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करवा सकते हैं।

ऐसे सेवकोंको बहुत ज्यादा शिक्षाकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है। बिलकुल अक्षरज्ञान न हो तो भी ग्राम सुधारका काम हो सकता है। इसमें सरकार अथवा रियासतें हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं। और इस काममें उनकी मददकी जरूरत भी कम है। प्रत्येक गाँवके लिए ऐसे पर्याप्त स्वयंसेवक मिल जायें तो जरा भी आडम्बर या कोई बड़ा, आन्दोलन किये बिना समस्त हिन्दुस्तानमें काम चल सकता है और बहुत थोडेसे प्रयत्नका अकल्पित परिणाम निकल सकता है। इसमें द्रव्यकी भी आवश्यकता नहीं होती, यह बात पाठक सहज ही समझ सकेंगे। जरूरत होती है सिर्फ सदाचार और धर्मवृत्तिकी।

किसानोंकी उन्नतिका यह सहलसे सहल रास्ता है, यह बात में अनुभवसे जानता हूँ। इस तरहके प्रयोग में किसी भी गाँव अथवा व्यक्तिको किसी दूसरे गाँव अथवा व्यक्तियोंकी बाट जोहनेकी आवश्यकता नहीं रहती। किसी भी गाँवमें कोई भी पुरुष अथवा स्त्री लोक-सेवाका शुद्ध विचार मनमें आते ही उसी क्षण सेवा प्रारम्भ कर सकता है और उसके इस कार्य में समस्त भारतकी सेवाका समावेश होगा। गाँवोंमें बसनेवाले जिन लोगोंके हाथमें 'नवजीवन' का यह अंक आयेगा, मुझे उम्मीद है कि वे मेरे द्वारा बताये गये सुझावोंके अनुसार प्रयोग करेंगे और थोड़े समयमें ही अपने प्रयोगके परिणामसे