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१४०. ग्राहकों और पाठकोंसे


इस सप्ताहसे 'यंग इंडिया' एक नये दौरमें प्रवेश कर रहा है। श्री हॉर्निमैनके निर्वासन और 'क्रॉनिकल' का गला घोट दिये जानके समयसे यह पत्र अर्ध-साप्ताहिक हो गया था। लेकिन 'क्रॉनिकल' के पुनः प्रकाशनके समय से ही मैं और सिंडीकेटके सदस्यगण भी इस बातपर विचार कर रहे थे कि इसे फिर साप्ताहिक पत्रका रूप दे देना कहाँतक ठीक होगा। मगर जब 'नवजीवन' को साप्ताहिक रूप देकर उसके सम्पादनका भार मुझे सौंप दिया गया तो उक्त निर्णय करनेमें शीघ्रता करनी पड़ी। एक अर्ध-साप्ताहिक और एक साप्ताहिकका संचालन साथ-साथ करना मेरे लिए बहुत ज्यादा भारी पड़ेगा। इसके अतिरिक्त जितना काम अर्ध-साप्ताहिक 'यंग इंडिया' कर रहा था, लगभग उतना ही साप्ताहिक से भी निकल जायेगा। हमारी कोशिश यही रहेगी कि इसमें अर्ध-साप्ताहिकके बराबर ही सामग्री दी जाये। अब वार्षिक चन्दा ८ रुपयेके बजाय ४ रुपये होगा और एक प्रतिकी कीमत डाक खर्च छोड़कर दो आनेके बदले एक आना होगी। ग्राहकगण चाहें तो इस परिवर्तन के फलस्वरूप, उनका जो अतिरिक्त चन्दा बच रहा है उसे वापस ले सकते हैं या अगले सालके खाते में जमा भी करा सकते हैं। जिन ग्राहकों को यह परिवर्तन नापसन्द हो वे चाहें तो अर्जी भेजकर अनुपाततः अपनी बकाया राशि वापस मँगा सकते हैं।

अच्छी व्यवस्थाके खयाल से 'यंग इंडिया' का मुख्य कार्यालय अहमदाबाद ले जाया गया है। इसका एक उद्देश्य मुझे सत्याग्रह आश्रमके लिए अधिक समय सुलभ बनाना भी था, क्योंकि मेरे लगातार अनुपस्थित रहनेके कारण इधर इसकी थोड़ीबहुत उपेक्षा ही होती रही है। इसके अतिरिक्त दोनों पत्रोंका सम्पादन दो अलग-अलग स्थानोंसे करना हर प्रकारसे अधिक व्यय-साध्य भी था। अब इस निर्णयके कारण मुझे एक सुविधा से वंचित होना पड़ेगा; इधर जो में बम्बईके मित्रोंके साथ काफी रहने लगा था, अब वह न हो सकेगा। लेकिन मुझे आशा है, वे इसके लिए मुझे क्षमा करेंगे, अगर नई व्यवस्थाके परिणामस्वरूप, जैसी कि में आशा करता हूँ, देशकी अधिक सेवा हो पाये।

'यंग इंडिया' अभीतक मुख्यतः पंजाबके मामलों में ही उलझा रहा है। लेकिन आशा है कि यह दुःखद छाया भविष्य में हट जायेगी।

तब फिर 'यंग इंडिया' अपने पाठकोंके सामने क्या कुछ प्रस्तुत करेगा? में स्पष्ट रूप से स्वीकार करता हूँ कि किसी अंग्रेजी अखवारका सम्पादन करना मेरे लिए कोई बहुत प्रसन्नताकी बात नहीं है। मुझे लगता है कि यह काम करके में अपने समयका उत्तम उपयोग नहीं कर रहा हूँ। और अगर मद्रास प्रेसीडेंसीका खयाल न होता तो मैं 'यंग इंडिया' का सम्पादन छोड़ देता। वैसे यह सच है कि मैं सार्वजनिक हितकी बातोंके सम्बन्धमें समय-समयपर सरकारको अपने विचारोंसे अवगत कराना चाहूँगा। लेकिन इस उद्देश्य से मुझे किसी पत्रके संचालनका भार ढोनेकी जरूरत नहीं।