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ग्राहकों और पाठकोंसे


'नवजीवन' के सम्पादनके अनुभवने तो मेरे लिए सर्वथा नवीन रहस्यका उद्घाटन कर दिया है। जहाँ 'यंग इंडिया' के ग्राहकोंकी संख्या १,२०० से कुछ अधिक है वहाँ 'नवजीवन' के ग्राहकोंकी संख्या १२,००० है। यह संख्या २०,००० तक भी पहुँच सकती है, अगर हमें इतनी प्रतियाँ छापनेके लिए मुद्रक मिल जाये। इससे प्रकट होता है कि देशी भाषाओंके अखबारोंकी कितनी ज्यादा जरूरत महसूस की जाती है। मुझे यह सोचकर गर्वका अनुभव होता है कि किसानों और मजदूरोंके बीच मेरे पत्रके इतने अधिक पाठक हैं। भारत तो वे ही हैं। उनकी गरीबी भारतका अभिशाप और अपराध है। और उन्हींकी समृद्धि भारतको रहने लायक देश बना सकती है। भारतकी आबादी के नब्बे प्रतिशत लोग इस वर्गके हैं। अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाएँ तो भारतकी विशाल आबादी के इस अगाध सागरका एक तट-भर छू पाती हैं।

अतः जहाँ मैं इस बातको अंग्रेजी जाननेवाले हर भारतीयका कर्त्तव्य समझता हूँ कि वह जनसाधारणके लाभके लिए उत्तम अंग्रेजी विचारोंको देशी भाषाओं में अनूदित करे, वहाँ में यह भी स्वीकार करता हूँ कि अभी कुछ सालतक शिक्षित भारतीयोंसे, और विशेषकर मद्रास के लोगोंसे, जो कुछ कहा जाये अंग्रेजीमें ही कहा जाये। कुछ सालसे मेरा तात्पर्य तबतक से है जबतक हम हिन्दुस्तानीको सुसंस्कृत वर्गीके लोगोंके विचारविनिमयके समान माध्यमके रूपमें स्वीकार नहीं कर लेते और हिन्दुस्तानी हमारे स्कूलोंमें द्वितीय भाषाकी तरह अनिवार्य नहीं हो जाती।

लेकिन मैं किसी ऐसे पत्रके सम्पादनमें शरीक नहीं होना चाहता जो अपना खर्च खुद पूरा न कर सके, और 'यंग इंडिया' तबतक अपने पैरोंपर खड़ा नहीं हो सकता जबतक इसके ग्राहकोंकी संख्या कमसे कम २५,००० नहीं हो जाती। अगर हमारे तमिल भाई 'यंग इंडिया' को प्रकाशित होते देखना चाहते हों तो मैं उनसे ऐसा कुछ करनेका अनुरोध करूँगा जिससे उसे आवश्यक संख्या में ग्राहक प्राप्त हो सकें।

और यह बात इस कारण और भी आवश्यक हो जाती है कि 'यंग इंडिया' के मालिकोंने विज्ञापन लेना बिलकुल बन्द कर देनेका निश्चय किया है। मेरा तो विचार है कि अखबारोंको पूरी तरह विज्ञापनके बिना चलाना चाहिए और मैं जानता हूँ कि मालिकोंने मेरे इस विचारको पूर्णतः स्वीकार नहीं किया है, लेकिन वे मुझे प्रयोग करनेकी छूट देनेको तैयार हैं। मैं ऐसे लोगोंसे, जो 'यंग इंडिया' को विज्ञापनोंके इस अभिशापसे मुक्त देखना चाहते हैं, इस प्रयोगको सफल बनानेकी प्रार्थना करता हूँ। गुजराती 'नवजीवन से यह सम्भावना प्रकट हो चुकी है कि किसी अखबारके पृष्ठोंको विज्ञापनोंसे भरे बिना भी उसे चलाया जा सकता है। अगर हम प्रान्तके लिए विज्ञापनका केवल एक माध्यम - निश्चय ही कोई अखबार नहीं - रखें और उसमें जनताके लिए उपयोगी चीजोंकी, बिना किसी रंग-रोगनके, सीधी-सच्ची सूचनाएँ दी जायें तो इससे देशका कितना बड़ा आर्थिक लाभ होगा। अगर हममें इस बातके प्रति अपराधपूर्ण उदासीनता न हो तो हम इन शरारत भरे विज्ञापनोंके रूपमें एक भारी अप्रत्यक्ष कर देनेसे साफ इनकार कर दें। पत्रकारिताकी शुद्धता बनाये रखनेको उत्सुक कुछ पाठकोंने अभी हालमें किसी प्रसिद्ध अखबारसे एक