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१४६. पत्र : अब्दुल बारीको

[अक्तूबर १०, १९१९ के बाद]

प्रिय मौलाना साहब,

अगली १७ तारीख के सम्बन्धमें आपने मेरा पत्र देखा होगा।[१] मैं यह आशा कर रहा हूँ कि सभी हिन्दू उपवासादिमें शामिल होंगे और यह कार्यक्रम बहुत ही शान्ति-पूर्ण ढंग से सम्पन्न हो जायेगा। प्रदर्शन शान्तिपूर्वक सम्पन्न हो जाये इसमें उसकी सफलता निहित है। इसलिए मैं आशा करता हूँ कि आप सार्वजनिक रूपसे और व्यक्तिगत तौरपर भी इस आशय के निर्देश जारी करेंगे कि जो लोग अपनी भावनाको प्रकट करनेके लिए इस कार्यक्रममें शामिल हों वे अपने घरोंमें ही रहें, और जो लोग मसजिदोंमें जायें वे सर्वथा शान्तिपूर्ण ढंगसे और प्रार्थनामय मनसे जायें।

हृदयसे आपका,

तिवंगी महल
लखनऊ

हस्तलिखित अंग्रेजी मसविदे (एस० एन० १९८२५) की फोटो-नकल से।

१४७. उपवास और प्रार्थना

मेरा यह विश्वास और अनुभव है कि यदि उपवास और प्रार्थना सच्चे दिल और धार्मिक वृत्तिसे किये जायें तो उससे महान् फलकी प्राप्ति हो सकती है। उपवाससे जो शुचिता प्राप्त की जा सकती है वह अन्य किसी साधनसे नहीं। लेकिन बिना प्रार्थनाका उपवास शुष्क है और उसका परिणाम रोगीको निरोग करना अथवा निरोगीको व्यर्थ ही कष्ट देना हो सकता है। यदि उपवास केवल दिखावे के रूप में अथवा दूसरेको त्रास देनेकी खातिर किया जाये तो वह केवल पापकर्म ही माना जायेगा। इसलिए अपने ही ऊपर प्रभाव डालनेके लिए प्रायश्चित्तके रूपमें किये गये प्रार्थनायुक्त उपवासको ही धार्मिक उपवास कहा जा सकता है। प्रार्थनाका अर्थ ईश्वरसे सांसारिक सुख अथवा स्वार्थ साधनेकी अन्य वस्तुओंकी माँग करना नहीं है। प्रार्थना कष्ट सहनेवालेकी आत्माका गम्भीर नाद है। उसका संसारपर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता और उस प्रार्थनाकी ईश्वरके दरबारमें सुनवाई हुए बिना नहीं रहती। व्यक्ति अथवा राष्ट्र जब किसी महान् संकटसे पीड़ित हों उस समय उस पीड़ाका शुद्ध ज्ञान ही प्रार्थना है और जब ऐसे पवित्र ज्ञानका उदय होता है तब खाना आदि शारीरिक

  1. देखिए "पत्र : अखबारोंको" और "परिपत्र", १०-१०-१९१९