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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
तो हम विधवा-धर्मका पालन करनेके लिए तैयार हैं। यदि वह नहीं होता तो हमारे सामने जो तमाम लालच उपस्थित हैं उनके कारण विवाह आवश्यक है। . . . जब ज्ञानमार्गका ह्रास हुआ तब वल्लभने[१] भक्तिमार्गका प्रचार किया। कालानुसार पीढ़ियोंमें परिवर्तन हुआ उसी तरह ठीक विधवाओंके सम्बन्धमें भी होना चाहिए।

इसके अलावा इन पत्रोंमें ऐसी दूसरी अनेक बातें लिखी हैं। विधवाएँ किस तरह भ्रष्ट होती हैं, यह भी लिखा है। मैंने अपने शब्दोंमें मुख्य रूपसे दोनों पत्रोंका सारांश प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। हिन्दू समाज के सम्मुख विधवाओंका प्रश्न कोई छोटा-मोटा प्रश्न नहीं है। कदाचित् ही कोई ऐसा हिन्दू परिवार होगा जिसपर विधवाओंका उत्तरदायित्व न हो। सुधारकोंने इस प्रश्नके एकपक्षीय मार्गका सुझाव दिया है। पुनर्विवाह ही विधवाओंके दुःखका उपाय है, यह कह दिया है। मुझे तो यह विचार भयंकर लगता है। वैधव्यमें में तो बहुत रहस्य देखता हूँ; मुझे उसका उपयोगी पक्ष भी दिखाई देता है। पुरुष भी विधुर होनेपर पुनर्विवाहका विचार न करे - क्या यह अधिक अच्छा न होता? लेकिन इस सम्बन्धमें कोई भी आन्दोलन होता दिखाई नहीं देता। परन्तु इन विचारोंसे अथवा इनपर अमल करनेसे बाल-विधवाओंके कष्टोंको कैसे दूर किया जा सकता है? यदि हजारों पुरुष विधुर होनेके पश्चात् स्वेच्छा से पुनर्विवाह न करें तो इससे जिसे बलात् वैधव्य भोगना पड़ता है उस बालाको क्या लाभ? हठपूर्वक विधवाको पुनर्विवाह करनेसे रोकने में क्या धर्म हो सकता है? वैधव्यको शोभान्वित कर सकें, ऐसी स्थितिमें विधवाओंको रखे बिना [क्या] उनसे पवित्रताकी आशा की जा सकती है?

इन सारी उलझनोंको तत्काल सुलझाया जा सके, सो बात नहीं है। दोनों पक्षोंमें कम-ज्यादा सत्य [का अंश] विद्यमान है। वाद-विवादमें पड़े बिना में हिन्दूसमाजके सम्मुख निम्नलिखित निर्णयोंको प्रस्तुत करना चाहता हूँ:

१. वैधव्यको भंग करनेका प्रयत्न धर्मको हानि पहुँचानेवाला है।

२. विवाह एक धार्मिक क्रिया है। प्रेम केवल एक ही बार परिणयसूत्रमें बँध सकता है।

३. विधवा पूज्य है। उसका तिरस्कार करना पाप है। पवित्र विधवाका दर्शन शुभ शकुन है। उसे अपशकुन मानना पाप है।

४. विवाह यदि धार्मिक क्रिया है अथवा मानी जाती है और यदि यह केवल पवित्र प्रेमका सूचक है तो बेमेल और बाल-विवाहोंको पापरूप ही माना जाना चाहिए। यदि पचास वर्षकी अवस्थामें नौ वर्षकी बालिकासे विवाह करना दोष नहीं माना जाता और ऐसा विवाह करनेवाले व्यक्तिका जाति-बहिष्कार नहीं किया जा सकता तो ऐसी बालिका विधवा हो जाये और पुनर्विवाह करे तो उसे जातिसे बाहर करना तथा इस तरहकी और सजाएँ देना भी पाप ही है।

  1. वैष्णव आचार्य (१४७३-१५३१); जिनके कारण गुजरातमें भक्ति-सम्प्रदायका विशेष रूपसे प्रचार हुआ।