पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 16.pdf/२७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

के सम्बन्ध में हलफनामे लेनेकी जरूरत पड़ी। अहमदाबादके मजिस्ट्रेट महोदय के सामन ये हलफनामे लिये गये। मजिस्ट्रेट महोदयने दोनों पत्रोंके लिए जमानत न लेनेका निश्चय किया; और यही निश्चय 'नवजीवन मुद्रणालय' के सम्बन्धमें भी किया। उनके इस निश्चयके लिए हम उन्हें धन्यवाद देते हैं। आज जब कि भारतके समाचार-पत्रोंपर प्रेस अधिनियमकी अन्यायपूर्ण धाराएँ तलवारके समान झूल रही हैं, ऐसे समय 'नवजीवन' अथवा 'यंग इंडिया' के इस जमानतसे मुक्त रहनेपर हमें कितनी प्रसन्नता हुई है, हम इसका वर्णन नहीं कर सकते। जमानत हमारी कलमपर किसी भी प्रकारका अंकुश नहीं लगा सकती और न उसके अभाव में हमारी निरंकुशतामें रत्ती भर वृद्धि ही होती है, बल्कि इससे हमारा उत्तरदायित्व सहज ही बढ़ जाता है। हो सकता है कि जाने-अनजाने हम ऐसे विचार प्रगट कर जायें जिससे हम फिरसे जमानतके पात्र समझे जायें। कुछ भी हो हम विवेक और मर्यादाके साथ, निर्भयता-पूर्वक जनताके सामने अपने विचारों और मन्तव्योंको पेश करनेका प्रयत्न करते रहेंगे।

"हमारी मुसीबतोंका आप अनुमान नहीं लगा सकते"

बिहारके प्रसिद्ध पत्रकार, शाही विधान परिषद् के सदस्य माननीय सच्चिदानन्द सिन्हासे[१] दण्डविमुक्ति विधेयक ( इंडेम्निटी बिल) पर बोलते समय (भाषाकी) कुछ भूल हो गई। सर जॉर्ज लॉउण्डेज़ने[२] उसे सुधारनेका प्रयत्न किया और वाइसराय महोदयने कहा यह तो चूक हो गई। माननीय सिंहने कहा, "विदेशी भाषामें बोलते हुए हमें कितनी दिक्कत का सामना करना पड़ता है, यह बात आपके ध्यानमें आ ही नहीं सकती। भूलें तो हमसे कदम-कदमपर होती हैं।" ये उद्गार श्री सिंहका गौरव बढ़ाते हैं। विदेशी भाषामें बोलते समय अत्यन्त बुद्धिमान सदस्योंको भी बहुत परेशानी उठानी पड़ती है और हम तत्काल कोई प्रसंगानुकूल उत्तर देने में चूक जाया करते हैं। यह इस कारण नहीं होता कि हमारा मामला दुर्बल होता है अथवा हमारी जानकारी कम होती है, बल्कि विदेशी भाषामें बोलनेके कारण ही हमें अनेक बार मुँहकी खानी पड़ती है। बहुत अच्छी अंग्रेजी बोलनेवाले भारतीय, इंग्लैंड जानेपर वहाँके सामान्य शिक्षा प्राप्त अंग्रेज-परिवारोंसे बातचीत करते हुए हड़बड़ा जाते हैं और अनेक बार उपहासके पात्र बनते हैं। ऐसा अनुभव इंग्लैंडसे आनेवाले प्रत्येक भारतीयको होता है। प्रोफेसर यदुनाथका कहना है कि अंग्रेजी भाषामें सोचने और बोलनेके कारण शिक्षित वर्गपर भारी बोझ पड़ता है, इतना भारी बोझ पड़ता है कि शिक्षित वर्ग उसके कारण शक्तिहीन और रोगग्रस्त हो गया है। न्यायमूर्ति श्री रानडेने कुछ वर्ष पहले बताया था कि हमारे शिक्षित वर्गके बहुत से लोग अकाल मृत्युको प्राप्त होते हैं और आविष्कार करनेकी शक्ति तो कदाचित् ही होती है। देर-सबेर हमें ऐसी कठिन परिस्थितिका उपचार करना ही होगा, [और यह हम] जितनी जल्दी करेंगे उतना ही वह लाभकारी होगा। प्रान्तीय विधान परिषदोंमें अपने-अपने प्रान्तकी भाषामें काम

  1. पटनाके मासिकपत्र हिन्दुस्तान रिव्यू के सम्पादक।
  2. भारत सरकारके कानून-सदस्य (लॉ मेंबर)।