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१५८. टिप्पणियाँ फिजूलखर्ची

हम श्री गोपालजीके पत्रकी ओर पाठकोंका ध्यान आकर्षित करते हैं। नववर्षकी बधाईका पत्र भेजनेका जो रिवाज पड़ गया है, उसका कोई अर्थ नहीं है; वह फिजूलखर्ची है। श्री गोपालजी कहते हैं कि यह खर्च करनेके बदले लोग उतना पैसा पंजाब-संकट निवारणमें दें। उन्होंने और उनके मित्रोंने यही किया है और उसी तरह हम सब [भी] करें तो हम अनायास ही पंजाबके दुःखमें हाथ बँटा सकेंगे।

हम नहीं कह सकते कि नववर्षके कार्ड छपवाना और भेजना, पुराना रिवाज है या नया। हम यह भी नहीं कहते कि नये रिवाजोंको नहीं अपनाना चाहिए। प्राचीन ही प्रशस्त हो, सो बात भी नहीं है। प्राचीन प्रथाका त्याग करनेसे पूर्व हमें विचार करना चाहिए। नये रिवाजोंको एकदम स्वीकार न करना बुद्धिमानी है। कार्ड भेजनेका यह रिवाज यूरोपसे आया है। यदि हम यूरोपसे मोहित न हुए होते तो बधाईका कार्ड भेजने के रिवाजको कदापि न अपनाते। मित्र लोग ऐसे कार्डसे प्रसन्न नहीं होते। यह तो तिब्बतके प्रार्थना-चक्र के समान हुआ। तिब्बतके कुछ लोग एक ही प्रार्थना अथवा जपको लाखों बार कहने के इच्छुक तो रहते हैं लेकिन उतना समय नहीं बचा पाते, इसलिए एक [जप-अंकित] चक्र रखते हैं और चक्र जितने फेरे लगा लेता है वे मानते हैं कि उतनी प्रार्थना हो गई। उसी तरह हम परिश्रम किये बिना अपने मित्रोंका कार्डसे अभिनन्दन करना चाहते हैं। हमें तो लगता है कि यह जंगली रिवाज है। जिन्हें हम याद करना चाहते हों, उन्हें हम विशेषरूपसे पत्र लिखें, यह बात तो समझमें आती है। [छपा छपाया] कार्ड भेज देना एक अत्यन्त सामान्य किया है और उसका कोई मूल्य नहीं हो सकता। यदि कोई व्यक्ति बाप, भाई, बहन, स्त्री, मित्र और अपनी पुत्रीको एक ही तरहके कार्ड भेजता है तो कोई इसे भले ही समभावकी निशानी मान ले; हमें तो यह सबका अपमान ही लगता है। इसलिए हम कार्ड भेजने के रिवाजको सर्वथा नापसन्द करते हैं। लेकिन इस समय तो कार्डके बदले जो सुझाव दिया गया है, उसका सबको स्वागत करना चाहिए।

[गुजराती से]

नवजीवन, १९-१०-१९१९