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१६७. काठियावाड़के लोगोंके प्रति


काठियावाड़ के एक सज्जनने मुझे पच्चीस हजारकी रकम दी है। पहले तो वे यह चाहते थे कि में एक ही गाँवमें स्वदेशीके प्रचारके निमित्त उस रकमका उपयोग करूँ। मुझे यह लगा कि इतनी बड़ी रकम उस एक ही गाँव में खर्च नहीं की जा सकती। तब उन्होंने उस रियासत के लोगों में [स्वदेशीका प्रचार करनेके लिए] उस रकमका उपयोग करनेका सुझाव दिया। इस बन्धनसे भी मुझे लगा कि मैं २५,००० रुपयेकी रकमका सदुपयोग नहीं कर सकूंगा; तब उन्होंने मुझे सारे काठियावाड़ में उस रकमको खर्च करनेकी छूट दी है और मैंने इसे स्वीकार कर लिया है।

फिर भी उनके धनका उपयोग कुछ इस रूपमें करने में, जिससे उनकी उदारतामें चार चाँद लग सकें, मुझे कठिनाइयाँ दिखाई देती हैं। काठियावाड़की जनता यदि मेरी पूरी तरहसे मदद नहीं करती तो मैं इस धनका सन्तोषजनक ढंगसे उपयोग नहीं कर सकता।

स्वदेशी के प्रचारमें ही इसका उपयोग किया जाना चाहिए। स्वदेशीका जो अर्थ मैंने किया, उसे उन्होंने स्वीकार किया है। वह यह है कि मुख्यतया हाथसे कताई और बुनाई करवाकर देशके कपड़ा उत्पादनमें वृद्धि करना और इसकी वजहसे प्रति वर्ष बाहर जानेवाले करोड़ों रुपयोंको बरबाद होनेसे रोकना।

यदि कारीगर मिलें तो हाथसे कताई और बुनाई करने के कामको प्रोत्साहन देना अत्यन्त सहल है। देशी राज्य यदि चाहें तो यह कार्य आसानीसे हो सकता है। उनको और उनके दीवानोंको मैं विनयपूर्वक [निम्नलिखित] सुझाव देता हूँ:

१. काठियावाड़ में हाथसे बने कपड़ेपर यदि आपके राज्यमें चुंगी हो तो उसे हटा दीजिये।

२. काठियावाड़के बाहरसे आनेवाले हाथकते सूत अथवा देशी मिलके सूतपर चुंगी न लें।

३. किसानोंको रुई बेचने के लिए प्रेरित न करें बल्कि उसका संग्रह करनेके लिए प्रोत्साहित करें।

४. रुईकी फसल में सुधार करें। उसमें आसानीसे सुधार किया जा सकता है।

५. अपने ही राज्यमें कते और बुने सुतके वस्त्रको प्रोत्साहन दें; खुद भी उसीका प्रयोग करें।

६. अपने राज्योंमें देशी करघे और चरखे बनवाकर रैयतको लागत मूल्यपर दें।

७. अपनी प्राथमिक पाठशालाओंमें चरखों और करघोंको स्थान दें और लड़के तथा लड़कियोंके लिए इस हुनरके शिक्षणको पाठ्यक्रमका अनिवार्य विषय बनायें।

राजा-महाराजा और उनके मंत्रिगण यदि इस कार्यका बीड़ा उठा लें तो उपर्युक्त दानको जैसाका तैसा रखकर दानकर्त्तासे उस राशिका कोई दूसरा उपयोग करनेकी माँग करनी पड़ सकती है।