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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करते हैं, भला-बुरा कहते हैं और बहुत काम लेते हैं। सेठोंको तो यही शोभा देता है कि वे अपने नौकरोंपर मुनीम हो अथवा दरबान, कृपा दृष्टि रखें और विवेकसे काम लें। लेकिन क्या दोष केवल सेठोंका ही है? गुलामीको बनाये रखने में गुलामोंका भी कुछ कम हाथ नहीं होता। नौकरकी वफादारी, उसकी प्रामाणिकता और उद्योगशीलतामें है। वह अनुचित व्यवहारको बरदाश्त करनेके लिए बाध्य नहीं है। नौकर इतने हताश दिखाई पड़ते हैं कि नौकरीको ही अपना सर्वस्व मानने लगते हैं। उनका फर्ज है कि वे ऐसी असहाय अवस्थासे निकल जायें। हम मानते हैं कि जो मनुष्य ईमानदारी से उद्योग करना चाहता है, जिसका शरीर स्वस्थ है और जिसे मजदूरी करनेमें शर्म महसूस नहीं होती उसे अपनी आजीविका मिलने में कोई कठिनाई नहीं होती। देशमें चलनेवाले अनेक आन्दोलन सच्चे एवं उद्यमी लोगोंके अभावमें ढीले पड़ जाते हैं। उसमें नौकरीपेशा लोगोंका समावेश भी किया जा सकता है। इसलिए हम सेवक वर्गको दीनता त्यागकर सशक्त बननेकी सलाह देते हैं। जहाँ अपमान होता हो, जहाँ बहुत ज्यादा बेगार करनी पड़ती हो, जहाँ शरीर दिन-प्रतिदिन छीज रहा हो वहाँ नौकरी करने की कोई आवश्यकता नहीं। राष्ट्रीय जीवनमें प्रगतिके लिए पहले असंख्य स्त्री-पुरुषोंको स्वाभिमानका भान होना जरूरी है।

दुनियाको दिलासा

नये वर्ष आरम्भमें दुखियोंके दुखोंको सुनना हमारा फर्ज है। उसमें हमारा स्वार्थ भी है। दुःखीको सुखी करके ही हम सुखी बन सकते हैं। उस सुखको प्राप्त करनेके लिए हमें आसपास दृष्टि डालकर, जहाँ दुःख हो वहाँ मदद पहुँचानी चाहिए।

इस समय खास तौरसे पंजाबके लोग कष्ट भोग रहे हैं और बंगालमें बाढ़से ग्रसित होनेके कारण अनेक लोग बेघर तथा वस्त्रहीन हो गये हैं। इन दोनों स्थानोंपर हमें यथाशक्ति मदद पहुँचानी चाहिए। नये वर्षके उपलक्ष्यमें यह हमारा विशेष कर्त्तव्य है। मित्रोंको भोज देने में, मूल्यवान उपहार तथा मिठाई भेजनेमें हम बहुत सारा पैसा खर्च करते हैं। हममें सामर्थ्य हो तो हम वैसा भी करें; लेकिन यह याद रखना हमारा फर्ज है कि पहला हक दुखियोंका है।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, २६-१०-१९१९