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डाकोरजीके भीतरी भागकी ओर नजर डालिए तो वहाँ भी हमें गन्दगी-ही- गन्दगी दीख पड़ती है। पुजारी लोग बुद्धिहीन और मूढ़ जैसे जान पड़ते हैं। उस मन्दिरके आभूषणोंके लिए एक आदाता (रिसीवर) की नियुक्ति की गई है। केवल धर्म-सम्बन्धी स्थानके मामलेको अदालतके सुपुर्द करना वैष्णव लोग कैसे सहन कर सकते हैं? जो संप्रदाय नीतिका पोषक है, जिसको नरसिंह मेहता, मीराबाई आदि भक्तोंने सुशोभित किया है, वह सम्प्रदाय आज नीतिका हनन करनेवाला बन गया दीख पड़ता है।

डाकोरजी जानेवाले कौन लोग हैं? वहाँ सरल हृदय भोले-भाले यात्री जाते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं, लेकिन यह भी असंदिग्ध है कि वहाँ पाखंडी लोग अपने पाखण्डका प्रसार करनेके लिए भी जाते हैं।

इस अनीति-अस्वच्छता रूपी अन्धकारको कैसे दूर किया जाये? वैष्णवोंका क्या कर्त्तव्य है? डाकोरजी ही एक ऐसा तीर्थ-स्थान है जो दूषित अवस्था में हो, सो बात नहीं। काशी विश्वनाथमें भी हमें यही दशा दीख पड़ी है। वैष्णव-मतके न्यासी यदि प्रह्लादके सच्चे उत्तराधिकारी बनें तो डाकोरजीमें रहनेवाले अनेक हिरण्यकशिपुओंको निकाल बाहर कर सकते हैं। यदि वे वैष्णव सम्प्रदायका मुख उज्ज्वल करना चाहते हैं तो अनेक सुधार कर सकते हैं। यात्रियोंमें ज्ञान आ जाये तो मुख्य सत्ता अन्यत्र नहीं उन्हीं के पास है। लेकिन यात्रियों में ज्ञान उत्पन्न हो इसका अर्थ यह हुआ कि करोड़ों हिन्दू अपने धर्मकी प्रौढ़ता और उसके धार्मिक तत्त्वको समझने लगें—वह समय अभी दूर है।

भाटिया[१] पलटन वहाँ जाने लगी है। इस पलटनके सदस्योंके हृदयोंमें यदि रणछोड़जी वास करें तो वह भी कुछ कर सकती है। उनका काम सिर्फ व्यवस्था बनाये रखकर सन्तोष करना नहीं, बल्कि जहाँ-कहीं भी अनीति दिखाई पड़े उसे निर्मूल करना है। और इसके लिए वे साहित्य तैयार करके लोगोंमें वितरित कर सकते हैं।

महाराजा[२] लोग भी बहुत कुछ कर सकते हैं। लेकिन उनतक 'नवजीवन' पहुँचता होगा अथवा नहीं, यह हम नहीं जानते। 'नवजीवन' के पाठक इस शोचनीय अवस्थाकी ओर उनका ध्यान आकर्षित कर सकते हैं। वैष्णव भक्तगण इन महाराजाओंको उनके धर्मके बारेमें बता सकते हैं।

स्वराज्यवादियोंके लिए विशेष रूपसे विचारणीय प्रश्न यह है : "यदि हम अपने तीर्थ-स्थानोंका सुधार नहीं कर सकते तो स्वराज्य मिलनेपर भला क्या कर सकेंगे?" स्वराज्य मिलनेपर ये स्थान अपने-आप सुधर जायेंगे, ऐसा विचार किसीका भी न होगा।

डाकोरजीकी नगरपालिका क्या करे -- इसके सम्बन्धमें डॉक्टर लक्ष्मीप्रसादने सुझाव दिया है। नगरपालिका अर्थात् लोग । ऐसी संस्थाएँ निष्प्राण होती हैं। ये तो

  1. कच्छ में बसनेवाली एक जाति। इस जातिके लोग इस मंदिर में व्यवस्था कायम रखनेके लिए स्वयंसेवकों की हैसियतसे जाया करते थे।
  2. वैष्णव मन्दिरके मुखिया।