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चरखा आन्दोलन

अहमदाबाद स्वदेशी सभाकी ओरसे चरखेका जो आन्दोलन आरम्भ किया गया है, उसके सम्बन्धमें इस अंक में प्रकाशित किये गये तथ्यकी ओर हम पाठक वर्गका ध्यान आकर्षित करते हैं। इनसे कुछ एक मुद्दों को आसानीसे सुलझाया जा सकता है। पहला तो यह कि बम्बईकी तरह अहमदाबाद शहरमें भी स्त्रियोंका एक ऐसा वर्ग है जो नित्य रुई कातकर दो या तीन आने कमाना एक उपयोगी काम मानता है; दूसरा यह कि लुनसावाड़[१] नामक मुहल्ले में ज्यादा चरखे चल रहे हैं। इतना ही नहीं, उस मुहल्लेमें अबतक हर महीने चरखोंकी संख्यामें वृद्धि होती आई है। दूसरी ओर खाडिया नामक मुहल्ले में चरखोंकी संख्यामें तीसरे महीने कुछ कमी हुई है। चरखे लेनेवाली स्त्रियोंकी जातिवार सूची तैयार करनेसे इस घट-बढ़ के कारणपर कुछ प्रकाश पड़ेगा। ऊपर-ऊपरसे देखने पर ऐसा लगता है कि लुनसावाड़ में बसे हुए लोगोंके अधिक गरीब होनेकी वजहसे वहाँके लोगोंने अन्य जगहोंकी अपेक्षा अधिक चरखे चलाना शुरू किया है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस अनुमानमें कुछ-न-कुछ सचाई जरूर है। यह भी विचारणीय है कि उक्त आँकड़ोंसे यह बात कहाँतक सिद्ध होती है, जाति और कुलका अभिमान रखनेवाली ऊँची जातियाँ गरीबीके शिकंजे में ग्रसित होनेके बावजूद हलका काम हाथ में लेने में संकोच करती हैं और नीची जातियाँ आवश्यकता पड़नेपर [किसी भी] अनुकूल कामको सहर्ष स्वीकार कर लेती हैं। इससे भी अधिक बोधजनक प्रश्न यह है कि [एक ओर] बम्बई, अहमदाबाद, सूरत आदि स्थानोंमें तथा दूसरी छोटी जगहोंमें जो स्त्रियाँ फिलहाल चरखा चलाती हैं वे तथा दूसरी ओर उसी वर्गकी हजारों और लाखों स्त्रियाँ, मोटे तौरपर किन-किन धन्धों में प्रतिदिन कितना-कितना कमाती हैं? हम हर किसीसे इस अत्यन्त बोधदायक प्रश्नके सम्बन्धमें तुरंत जानकारी प्राप्त करनेकी विनती करते हैं और आशा करते हैं कि इस बीच भिन्न-भिन्न स्थानोंपर चलाये जा रहे चरखोंके सम्बन्ध में अहमदाबादके समान ही तफसीलवार जानकारी भेजकर सब स्वयंसेवक और [स्वदेशी] सभाएँ हमें अनुगृहीत करेंगी।

टैनरियाँ

"टैनरियाँ"[२] अर्थात् चमारोंकी दुकानें और पेढ़ियाँ। एक संवाददाताका कथन है कि आजकल हिन्दुस्तान में इस प्रकारकी पेढ़ियाँ बहुत खुल रही हैं। आगे चलकर वह लिखता है कि इस तरह भारतका व्यापार बढ़े यह वांछित नहीं है, क्योंकि इससे मवेशियोंका नाश होता है।

ऐसा लिखकर लेखकने सद्भावपूर्वक जीवहत्या के प्रश्नको उठाया है। हमें लगता है कि चमारोंकी दुकानोंसे पशु-हिंसामें कोई वृद्धि नहीं होगी। चमारोंकी दुकानोंके बढ़ने पर ज्यादा मवेशी मारे जायेंगे, ऐसा माननेका कोई कारण नहीं है। मरे हुए ढोरोंके चमड़े का उपयोग करना दोष रहित है, ऐसी हमारी मान्यता है। चमारोंका धन्धा आवश्यक है। मनुष्योंका जूतों बिना गुजारा नहीं है। खेतीके धन्धेमें चमड़ेका हर समय

  1. अहमदाबादके मुहल्ले।
  2. यहाँ गांधीजीने ही अंग्रेजी शब्दका प्रयोग किया है।