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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उपयोग किया जाता है। पानी भरनेकी असंख्य मशकें भी चमड़ेकी ही बनती हैं। इस धन्धेसे लाखों रुपयेकी कमाई होती है।

यह धन्धा फिलहाल चमारों और मोचियोंके हाथमें है। उनके हाथसे यह धन्धा भारी फर्मोंके हाथमें न चला जाये और चमार तथा मोची भूखे न मरने लगें इसका बन्दोबस्त भी हमें करना है।

यदि हम समय से न चेतेंगे तो इसका परिणाम वही होगा जिसकी कि हमें आशंका है। हमने कारीगरोंके हितोंकी फिक्र ही नहीं की है। कारीगरोंको 'कमीन'[१] करार देकर उनका अनादर करना देशको नुकसान पहुँचाना है। कारीगरीको हलका मानकर और मुनीमगीरीको ऊँचा चढ़ाकर हमने गुलामीको स्वीकार किया है। राज, मोची, सुनार, लुहार, हज्जाम आदि वर्गोंको नीचा मानकर हमने उन्हें दबाया है। हमने उनके धंधोंसे तथा उनके घरोंसे विनयशीलता, विद्वत्ता, सौजन्य और सभ्यताको हर लिया है। परिणाम यह हुआ है कि उनका जीवन शुष्क बन गया है और वे लोग स्वयं भी अपने जीवनको उच्च नहीं मानते हैं। इसलिए शिक्षा प्राप्त कर लेनेपर वे अपने धन्धोंको छोड़ देते हैं, अपना धंधा करने में शरमाते हैं। मोची पढ़-लिखकर अपना व्यवसाय छोड़ देता है, दर्जी पढ़-लिख जानेके बाद सुईको हाथ नहीं लगाता, बुनकर खड्डीके साथ वैर ठान लेता है और फिर भंगी शिक्षा प्राप्त कर लेनेपर पाखाना साफ करे यह भला कैसे हो सकता है? यदि हमने हाथ-पैरकी मेहनत से होनेवाले धंधोंको हेय न समझा होता तो हम ऐसी कठिन परिस्थितिमें न पड़ते और भंगी तकका धन्धा करते हुए स्नातक न शरमाता।

जीवदयाके सम्बन्धमें भी हममें विचित्र विचार फैले हुए हैं। जीवदयाकी शुरूआत हमें अपनी ही जाति अर्थात् मनुष्य जातिसे करनी चाहिए, उसके बदले पशुओंपर छुरी न चलाने में ही हम जीवदयाकी इतिश्री मान लेते हैं। पशुओंपर दया करना जरूरी तो है, परन्तु मनुष्य जातिपर भी उतनी ही दयाकी आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त जीवदयाके बहाने अथवा उसके नामपर हम बौरा न जायें, इस बातका ध्यान रखना भी जरूरी है। जो लोग मरे हुए पशुके चमड़े के उपयोगको "जीवित पशुकी खाल उधेड़ने" जैसा मानते हैं उनकी बातमें न न्याय है और न सत्य।

[गुजराती से]
नवजीवन, २-११-१९१९
  1. गुजराती 'वसवाया' अर्थात बढ़ई, नाई, धोबी आदि जिन्हें गाँवो लोग कामके बदले उपजका कुछ अंश तथा मांगलिक अवसरोंपर इनाम देते हैं।