पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 16.pdf/३२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

१९०. पत्र : जीवनलाल बी॰ व्यासको[१]

[दिल्ली]
नवम्बर ३, १९१९

एक मन कपड़ेका कमीशन एक रुपया। वेतन चाहिए तो वह भी दिया जा सकता है। सूत तो हाथका कता हुआ ही होना चाहिए।

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती (एस॰ एन॰ ६८०३) से।

 

१९१. पंजाबकी चिट्ठी—२

दिल्ली
सोमवार, कार्तिक सुदी ८[२] [नवम्बर ३, १९१९]

लाहौर में मुझे स्त्री-पुरुषोंके जिस प्रेमका अनुभव हो रहा है में अपनेको उसका पात्र नहीं पाता। इससे हिन्दुस्तान के लोगोंकी श्रद्धा, सरलता और उदारता अवश्य प्रदर्शित होती है और वह मुझे मोहित किये हुए है। छोटे-बड़े सभी सारा दिन 'दर्शन' करने आते रहते हैं। मैं किसी भी जगह आसानीसे अकेला नहीं निकल पाता। लोगोंकी भीड़ मुझे देखते ही इकट्ठी हो जाती है और मैं इसे रोक नहीं सकता। 'दर्शन' देनेकी कोई पात्रता मुझमें नहीं है। पूजा करनेकी जो भावना लोगोंमें है वह सराहनीय हो सकती है; लेकिन किसी सेवकके 'दर्शन' करनेके लिए लोगोंके झुण्ड निकल पड़ें, यह मुझे असह्य जान पड़ता है। यदि मैं 'दर्शन' देने से इनकार करूँ तो मेरे सार्वजनिक काम में बाधा उपस्थित होने लगे। 'दर्शन' करनेसे लोगोंको तनिक भी लाभ होता है, यह में नहीं मानता। 'दर्शन' देनेवालेकी हालत तो दयनीय ही हो जाती है। एकबार एक मित्रने मुझसे पूछा "लोगोंके द्वारा मान दिये जानेसे तुममें कहीं 'घमण्ड' तो पैदा नहीं होता?" यह प्रश्न उन्होंने अत्यन्त सरलतासे किया था। मैं क्या जवाब दूँ? मैंने तो कहा, "खुदा मुझमें घमंड पैदा न करे।" ये मित्र एक प्रख्यात मुसलमान हैं। लेकिन 'दर्शन' देने में व्यस्त व्यक्तिपर बड़ी जिम्मेदारी आ जाती है। मनुष्यको 'दर्शन' देनेका कोई अधिकार नहीं है। मैं तो कह सकता हूँ कि इससे मुझे सिर्फ

  1. २९ अक्तूबर, १९१९ को लिखे अपने पत्रमें जीवनलाल बी॰ व्यासने गांधीजीसे पूछा था कि अगर हमें पेटीका सूत खरीदकर बनवानेकी अनुमति मिल जाये तो हम बहुत अच्छी किस्मका सूत कतवा सकते हैं। गांधीजीने उसी पत्रपर इसका उत्तर लिख दिया था।
  2. यह १० होनी चाहिए।