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१९९. पंजाबके लेफ्टिनेंट गवर्नरको लिखे पत्रका सारांश[१]

[लाहौर
नवम्बर १२, १९१९ के पूर्व]

प्रथम तो सार्वजनिक संस्था या संस्थाओं द्वारा प्रमाण देनेके अधिकारको निश्चित मान्यता मिलनी चाहिए और ऐसी संस्थाओं तथा सम्बन्धित पक्षोंको वकीलकी मार्फत उपस्थित होने की अनुमति होनी चाहिए; और उनके वकीलोंको जिरह करके तथ्योंको निकलवाने में मदद देनेकी इजाजत होनी चाहिए।

दूसरे इस समय जो नेता जेलमें हैं, उनमें से कुछ प्रमुख लोगोंको रिहा किया जाना चाहिए। यदि आवश्यकता हो तो पर्याप्त जमानत लेकर ही सही, लेकिन रिहा अवश्य किया जाये, ताकि वे अपना सबूत अपेक्षाकृत स्वतन्त्र स्थितिमें दे सकें, और गैर-सरकारी पक्षकी ओरसे भी सबल सबूत दे सकें और जनतामें अपनी उपस्थिति से विश्वासकी भावना जाग्रत कर सकें।

तीसरे 'समरी' अदालतोंके निर्णयोंपर पुनर्विचार करनेके लिए जो न्यायाधि- करण पहले ही नियुक्त हो चुका है, उसका फिरसे गठन किया जाना चाहिए और उसकी कार्यविधि ऐसी होनी चाहिए जिसपर जनताका विश्वास जम सके।[२]

[अंग्रेजीसे]
लीडर, १४-११-१९१९
  1. समाचारपत्र की रिपोर्ट में यह भी कहा गया था : "कुछ समय पहले कांग्रेस उप-समितिने सरकार से प्रार्थना की थी वह जाँचके बारेमें तीन बातें स्वीकार कर ले।" गांधीजीने उपर्युक्त बातोंके आधारपर एक पत्र लिखा था, जिनका "पंजाबकी चिट्ठी—३" १७-११-१९१९ में उल्लेख हुआ है।
  2. रिपोर्ट के अन्तमें कहा गया था : "पहली माँग तो वास्तवमें पहले ही काफी हदतक पूरी हो गई है. . .जबतक सामने रखी गई तीनों शत ज्योंकी-त्यों मान न ली जायें, उन्हें समितिका बहिष्कार करना चाहिए। गैर-सरकारी नेताओंकी सभा, जिसमें पंडित मदनमोहन मालवीय, पंडित मोतीलाल नेहरू, श्री सी॰ आर॰ दास और अनेक स्थानीय नेता भाग ले रहे हैं घंटोंतक होती रही है और इस विषयपर विचार-विनिमय करती रही है परन्तु यह लिखे जानेके समयतक, किसी निश्चित निष्कर्षपर नहीं पहुँच पाई।" 'अमृतबाजार पत्रिका' के उसी तारीखके खरीतेमें लिखा है कि "आज सुबह पंडित मालवीय जेल में हरकिशनलालसे मिलने गये परन्तु उन्हें इजाजत नहीं दी गई। इसके बाद वे पंजाब सरकारसे बातचीत कर रहे हैं; परन्तु क्या बात हुई यह विदित नहीं हो सका।"