पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 16.pdf/३४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०७
पंजाबकी चिट्ठी—३

हुआ। इसमें हर्षका कोई कारण नहीं होना चाहिए। लेकिन में जानता हूँ कि हिन्दुस्तान में यह स्थिति स्वाभाविक नहीं है। मैंने देखा है कि भीड़भाड़में हमारे यहाँ मर्यादा नहीं रहती। डाकोरजी जानेवाले यात्रियोंकी भीड़में मर्यादाके लोपकी बात हमने पढ़ी है। इसलिए दरबार साहब में मर्यादाका पालन होते देखकर मुझे हर्ष हुआ। मेरी कामना है कि हम सभी जगह ऐसा मर्यादित व्यवहार करें।

कुछ देर के लिए भीड़को शिक्षा देनेका कार्य मैंने स्वयं अपने हाथ में ले लिया। व्यक्तियोंकी भीड़ आगे बढ़ती तो मैं रुक जाता। और स्त्री-पुरुषोंसे कहता कि जबतक मैं दरबार साहबतक न पहुँच जाऊँ, तबतक वे सब जहाँ-तहाँ रुके रहें। जितनी देरमें उनके सम्मुख खड़ा रहता उतनी देरतक तो वे बैठे रहते लेकिन जैसे ही मैं चलना शुरू करता सब लोग खड़े हो जाते और मेरे पीछे चलना आरम्भ कर देते। मैंने पाँच-छः बार कोशिश की। पीछे की ओर लौटा भी किन्तु लोग कैसे मानते? अन्ततः वैसे ही [लोगोंसे घिरे हुए] चलना शुरू किया और लगभग एक घंटे में थोड़ा-सा फासला पार करके दरबार साहबमें दाखिल हुआ। यह लोगोंकी जिद थी। उन्होंने अपने प्रेमपर तनिक भी अंकुश नहीं लगाया। उन्होंने अत्यन्त दुःख सहन किया था। और अब वे प्रेमरूपी जलसे अपने दुःखों को धो रहे थे। लेकिन क्या मैं उनके इस प्रेमका पात्र था? जिन्होंने प्रेम बरसाया वे तो निस्सन्देह सुखी हैं; लेकिन जो उस प्रेमको स्वीकार करता है उसका क्या हाल होता है? अनेक स्त्रियोंका अथवा जिन लोगोंके सगे-सम्बन्धी जेलमें थे उनका यह विश्वास था कि मेरे बलपर वे सब छूट जायेंगे। लेकिन मैं छुड़ानेवाला कौन हूँ? में तो इतना ही कह सकता हूँ कि मैं उसी प्रभुके चरणोंमें इस प्रेमको अर्पित करता हूँ जिसके नामपर यह सेवा कर रहा हूँ। दरबार साहबके दर्शन करनेके बाद मुझे उत्तरीय और पगड़ी भेंट किये गये; मैंने पगड़ी अपनी टोपीपर बाँधी और उत्तरीय को गलेमें डाल लिया। दर्शन करके वापस लौटना भी उतना ही मुश्किल था। इस तरह जलूसमें पांच घंटे व्यतीत हो गये। फिर भी लोगोंका मन नहीं माना। मुझे लाला गिरधारीलालके यहाँ ले जाया गया। उनके घर शामके ठीक छः बजेतक हजारों व्यक्ति आते रहे और मुझे उनसे मिलनेके लिये बार-बार बाहर जाना पड़ा। स्त्री और पुरुष दोनों ही आते थे। अमृतसरके लोगों का कहना है कि आजतक इतनी स्त्रियाँ घरके बाहर नहीं आईं। उन्होंने 'उपदेश' सुने बिना जानेसे कतई इनकार कर दिया। इस ओर 'उपदेश सुनाइये' यह सामान्य वाक्य था। मैंने बहनोंको सबसे पहले उनके दुःखके लिये उन्हें दिलासा दिया तथा भयसे मुक्त होनेकी सलाह दी। जो जेल गये हैं उनके लिये शोक न करनेकी विनती की और कहा कि जबतक सहस्रों भारतीय निश्चयपूर्वक जेलके दुःखोंको सहन नहीं करेंगे तबतक हम आगे नहीं बढ़ सकते। इसके बाद स्वदेशीकी सलाह देते हुए उसे धर्म मान-कर रोज थोड़ी देरके लिये सूत कातनेका सुझाव दिया।

शक्तिका प्रपात

ये दृश्य भव्य कहे जा सकते हैं। जिस तरह नायगरा प्रपातसे शक्ति उत्पन्न करके अमेरिकाके लोग उसका उपयोग करते हैं वैसे हम भी अमृतसर आदि स्थानों-