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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पर व्याप्त शक्तिका उपयोग कर सकते हैं। इस समय यह शक्ति जल-प्रपातके समान व्यर्थ जाती है। उसका उपयोग किया जा सकता है। हजारों स्त्री-पुरुषोंमें देशाभिमान व्याप्त हो गया है। ये लोग यह भी समझते हैं कि इसमें धर्मका विचार भी होना चाहिए। उनके पास समय है लेकिन तालीम नहीं, जानकारी नहीं, जो टिक सके वह उत्साह और उद्योग नहीं। इन स्त्री-पुरुषोंको अक्षरज्ञानकी जरूरत है। और इससे भी पहले उन्हें उस ज्ञानकी आवश्यकता है जो मनको बदल डालता है और व्यक्तिको सेवा- परायण बना देता है। लेकिन पढ़े-लिखे और सामान्य रूपसे अशिक्षित कहे जानेवाले वर्ग के बीच एक बड़ी खाई है। पढ़े-लिखे भी जलूसमें थे। वे भी स्वदेशाभिमानी तो हैं ही। लेकिन उनका जीवन अशिक्षितोंसे अलहदा है और वे मानते हैं कि जबतक अशिक्षित लोग पढ़ नहीं जाते तबतक देशका उद्धार नहीं हो सकता। देशके उद्धारके लिए देशके प्रति प्रीति, देशके निमित्त खटने, दूसरे शब्दों में कहें तो धर्म-ज्ञान होनेके अलावा और किसी चीजकी जरूरत नहीं है, और धर्म-ज्ञानका अर्थ हुआ कर्त्तव्यपरायणता। प्रत्येक व्यक्ति यदि अपने आजके कर्त्तव्यको समझकर तदनुरूप आचरण करे तो [उसके सामने] दूसरे दिनका कर्तव्य स्वयंमेव उपस्थित हो जायेगा। आजका धर्म यह है कि :

  1. हम किसीसे डरें नहीं;
  2. सत्यका ही आचरण करें;
  3. देशकी भुखमरीको दूर करनेके लिए स्वदेशी धर्म ग्रहण करें;
  4. इस धर्मका सहज ही पालन किया जा सके इसके लिए घर-घरमें चरखा चालू करायें तथा हाथसे बने कपड़े उत्पादनको प्रोत्साहन दें और खुद भी वही कपड़ा पहनें।

ईश्वरसे डरनेवाला व्यक्ति मनुष्यसे नहीं डरता, इस कारण सरकारसे, राजासे, अमलदारसे नहीं डरता और जो डरता नहीं उसे कौन डरा सकता है? तथा जिसे कोई डरा नहीं सकता उसपर कोई भी सरकार बलात्कार नहीं कर सकती। तब सरकार आदि सत्ताएँ अपना सही स्वरूप समझें और निडर प्रजाके लिए कल्याणकारी शक्ति प्रमाणित हों। राजदण्ड भय उपजानेका साधन है। जहाँ प्रजा भयका त्याग कर देती है वहीं राजदण्ड बेकार हो जाता है। यह निडरता भी केवल निर्दोष आचरणके द्वारा ही पैदा की जा सकती है। सत्यके बिना निर्दोषता सम्भव नहीं है। इसलिए हम सत्यका आचरण करें—यही हमारी मुक्तिका द्वार है।

अपने वस्त्रोंके लिए हम प्रतिवर्ष ६० करोड़ रुपया बाहर भेजते हैं; इस कारण हमें स्वदेशीकी आवश्यकता है। स्वदेशीका चरखे और करघे द्वारा तेजीसे प्रसार किया जा सकता है। अतएव हमारे साठ करोड़ रुपयेके व्यापारकी चाबी है ये चरखे और करघे।

सत्यके बिना निर्भयता नहीं और स्वदेशीके बिना अर्थ-लाभ नहीं। इससे सत्य और स्वदेशीको अपनाने में ही स्वराज्य है। इन दो वस्तुओंको सिखानेके लिए यदि योग्य शिक्षक हों तो पल-भरमें जनताको इनकी शिक्षा दी जा सकती है। जिस गाँव में ऐसे स्वयंसेवक प्राप्त हो जायें वहाँ इन दो बातोंको सिखाना शुरू कर दिया