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२०६. भाई परमानन्द

'ट्रिब्यून' के स्तम्भों में श्री एन्ड्रयूजने अत्यन्त मार्मिक भाषामें भाई परमानन्दके मामलेके सम्बन्ध में लिखा है। भाई परमानन्द उन मुट्ठीभर भारतीयों में से हैं जिनकी संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है, और जिन्होंने भारतकी सेवाको ही अपना जीवन मान लिया है और खुशी-खुशी गरीबीको अपना लिया है। इसी भावनासे उन्होंने लाला हंसराज के प्रभाव में आकर लाहौरके डी॰ ए॰ वी॰ कॉलेज में प्रोफेसरका पद स्वीकार कर लिया था। अपने आडम्बरहीन आचरण, परिश्रम और तेजस्वी चरित्र द्वारा वे विद्यार्थियों और शिक्षकोंके भी प्रिय बन गये। इसके बाद वे दक्षिण आफ्रिकाके दौरे पर गये और वहाँ उन्होंने जीवनके निर्माणके लिए धर्मकी आवश्यकतापर व्याख्यान दिये। सत्यनिष्ठ और उदात्त व्यक्तिके रूपमें उनकी गहरी छाप मेरे मनपर पड़ी थी। उस उप महाद्वीप [दक्षिण आफ्रिका] में अपने दौरेकी अवधि में वे मेरे निकट सम्पर्क में आये और लगभग एक माहतक मेरे सम्मानित अतिथि रहे थे। विविध विषयोंपर मेरी उनसे बहुत-सी बातें हुईं और मेरा विश्वास है कि उनका देशप्रेम बहुत ही ऊँची कोटिका था—ऐसा देशप्रेम जो राष्ट्रीय हितोंको साधनेके लिए हिंसाका प्रयोग हेय मानता है। वे दक्षिण आफ्रिकासे इंग्लैंड गये। वहाँ वे उस हिंसात्मक विचारधाराके सम्पर्क में आये जिसका नेतृत्व पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा[१] कर रहे थे। तथापि विविध प्रलोभनोंके बीच भी उनके अन्तरमें सत्यकी ज्वाला उतनी ही प्रखरतासे जलती रही। अदालत के सामने दिया गया उनका स्पष्ट और निर्भीक बयान जाहिर करता है कि उन्होंने कुछ भी नहीं छिपाया है। उन्होंने ऐसी स्वीकारोक्तियाँ की हैं जो उनके लिए नुकसानदेह हैं। वे कोई भी बयान देनेको बाध्य नहीं थे, परन्तु वे पीछे हटनेवाले न थे। उन्होंने महसूस किया कि चाहे उनके बयानके कारण उन्हें सजा ही क्यों न हो जाये फिर भी उन्हें कुछ भी छिपाना नहीं चाहिए। उनके बयानमें स्वतः ऐसी कोई बात नहीं है जिसके आधारपर उन्हें सजा दी जा सके। परन्तु विशेष अदालतने इस बयान में अन्य सबूत जोड़ दिये और उन्हें सजा सुना दी।

उनकी पत्नी द्वारा दी गई युक्तियुक्त याचिकामें, जिसे हम अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं, सारे मामलेका बहुत ही तर्कयुक्त विश्लेषण किया गया है। मैं इस समय उसकी चर्चा नहीं करूँगा। मेरा उद्देश्य तो सिर्फ यह दिखाना है कि सरकारने एक सम्माननीय व्यक्ति के साथ एक साधारण अपराधी जैसा बरताव करके बहुत बड़ी भूल की है। उनको अपराधी मान भी लें तो भी उन्हें अंडमान भेजना अनुचित था। यदि वे शत्रु थे तो उनके साथ मानवोचित व्यवहार करके मित्र बना लेना आसान बात थी। यदि वे सचमुच ही खतरनाक व्यक्ति थे तो उन्हें उनकी स्वतंत्रतासे वंचित करना उचित था। परन्तु उन्हें साधारण कैदियोंमें रखना या अंडमान भेजना बहुत बड़ी

  1. इंडियन सोशियोलॉजिस्टके संपादक; देखिए खण्ड ४, पृष्ठ ४८९।