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पंजाबकी चिट्ठी—४

प्रह्लादने अपने पिताके प्रति रखा था। श्री एन्ड्रयूजका जीवन हमें सिखाता है कि अत्याचार और अन्यायका विरोध करना हमारा कर्त्तव्य है, लेकिन हमारा यह भी कर्त्तव्य है कि हम अत्याचारीके प्रति द्वेष या वैरका भाव न रखें। सरकारने हमें विषम स्थितिमें डाल दिया है। उसने कैदियोंको अस्थायी रूपसे छोड़नेतक से इनकार कर दिया है। हम लॉर्ड इंटरकी समितिके सम्मुख गवाहियाँ पेश करना चाहते थे, लेकिन सरकारने हमारे लिए वैसा कर सकना अशक्य कर दिया। सरकार द्वारा उठाये गये इस अविवेकपूर्ण कदमके जवाब में हमें क्रोध नहीं करना चाहिए। श्री एन्ड्रयूजने भारतके हितमें इतना कार्य किया है जितना अनेक भारतीयोंने न किया होगा। उन्होंने अपने देश- भाइयोंके बारेमें बोलनेमें कुछ कसर नहीं रखी है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें अंग्रेजोंके प्रति कम प्रेम है। उसी तरह हम भी अंग्रेजों अथवा सरकारके प्रति द्वेष भाव रखे बिना न्याय और अपने आत्मसम्मानके लिए लड़ सकते हैं।

हमारा कर्त्तव्य

"श्री एन्ड्रयूजने तो भारतके लिए अपनेको उत्सर्ग ही कर दिया है। वे सामान्य कोटिके अंग्रेज नहीं है। वे विद्वान् हैं, कुलीन परिवारमें उत्पन्न हुए हैं, कवि एवं धर्मशास्त्रके ज्ञाता हैं। अगर वे चाहते तो एक उच्चाधिकारी होते, अगर उन्होंने चाहा होता तो किसी बड़े कालेज के प्रधानाध्यापक बन सकते थे या अगर उनकी अभिलाषा होती तो वे एक बड़े पादरी हो सकते थे। लेकिन उन्होंने धनकी आकांक्षा नहीं की, उच्च पदकी परवाह भी नहीं की और आज अपरिग्रही संन्यासीकी तरह भारतका भ्रमण किया करते हैं। ऐसे अंग्रेजके प्रति हमारा कर्त्तव्य क्या है? जबतक अंग्रेज जातिमें एक भी एन्ड्रयूज है तबतक हम उनकी खातिर ही सही अंग्रेजोंके प्रति द्वेष नहीं रख सकते। यह बात तो स्पष्ट है कि यदि हम अंग्रेजोंसे घृणा करें तो श्री एन्ड्रयूजके प्रति हमारा शुद्ध प्रेम नहीं हो सकता और हमें उनकी सेवाको स्वीकार करनेका भी अधिकार नहीं रह जाता। अब सवाल यह है कि जब जलियाँवाला बाग जैसा कत्लेआम हो, अंग्रेज सिपाही हमें गालियाँ दें, ठोकरें मारें, रेलगाड़ियोंमें अपने साथ बैठने न दें, अंग्रेज अधिकारी सब अधिकारोंको स्वयं ही भोगना चाहें, अंग्रेज व्यापारी हिन्दुस्तान के मुख्य व्यापारको अपने ही हाथोंमें रखनेके इच्छुक हों तो हमें उनपर क्रोध आये बिना कैसे रह सकता है? हमारे दिलोंमें उनके प्रति प्रेमभाव कैसे रह सकता है? यह कठिनाई तो स्पष्ट है। जिस ओर दृष्टिपात करें वहीं द्वेष, क्रोध, तिरस्कार और झूठ नजर आता है। जब भारतीय लोग आपसमें एक दूसरेसे प्रेमभाव नहीं बनाये रख सकते तो हम उनसे अंग्रेजोंके प्रति प्रेम बरतने की आशा कैसे कर सकते हैं? इन शंकाओंके मूलमें नास्तिकता है। बुद्धिके द्वारा ईश्वरके अस्तित्वको स्वीकार करने भरसे कोई व्यक्ति आस्तिक नहीं वन जाता। ईश्वरके प्रति श्रद्धा तो हो लेकिन लोगोंके प्रति प्रेम न हो, ये परस्पर विरोधी बातें हैं। आस्तिकता अर्थात् सत्य और प्रेम इत्यादि गुणोंका होना, यदि ये गुण हममें पूरी तरह से पुष्पित और पल्लवित हो जायें तो समझिये कि हम स्वयं ही ईश्वर रूप हो गये।