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पंजाबकी चिट्ठी—५

उत्पन्न हुए प्रश्नपर यदि हमें असन्तोष अथवा सन्देह हो तभी हम उन समारोहोंमें भाग लेनेसे पीछे हट सकते हैं। केवल खिलाफत ही एक ऐसा मामला है। वह यद्यपि समझौतेका एक भाग है; फिर भी एक तो हमें उसकी कोई सूचना नहीं है और दूसरे हमें पूरा अंदेशा है कि इस प्रश्नका निपटारा हमारे लिए सन्तोषप्रद रूपमें नहीं किया जायेगा। इसलिए हमें सिर्फ खिलाफतके मसलेको लेकर ही इन समारोहोंका त्याग करना चाहिए। यदि हम पंजाबके प्रश्नको इसमें मिलाते हैं तो हमपर अविचारी होने और असन्तुलित विवेक बुद्धि रखनेका आरोप लगाया जायेगा तथा इससे खिलाफत और पंजाबके प्रश्नोंको धक्का पहुँचेगा। खिलाफतका प्रश्न अत्यन्त गम्भीर है और हमें इसके लिए तुरन्त ही कोई उपाय ढूँढ़ निकालना चाहिए। इसपर थोड़े ही समयमें निर्णय होनेवाला है, इसलिए हम इस समय उसके साथ अन्य प्रश्नोंको जोड़ कर उसे नुकसान पहुँचानेका खतरा नहीं उठा सकते। अतएव मैं आशा करूँगा कि इस अवसरपर हम पंजाबके प्रश्नको नहीं उठायेंगे।

"अब सवाल यह है कि खिलाफत के प्रश्नपर मुसलमान भाई न्यायपर हैं अथवा नहीं। यदि उनकी माँग न्यायोचित न हो तो हम हिन्दू अथवा अन्य लोग उनकी मदद नहीं करेंगे। वे मददकी ख्वाहिश भी नहीं कर सकते और मदद मिल भी गई तो सफलता नहीं मिलेगी। लेकिन मुसलमान भाइयोंकी मांगके औचित्यपूर्ण होनेके साक्षी रूप तो इंग्लैंडके प्रधानमन्त्री स्वयं तथा भारतके कुछ भूतपूर्वं वरिष्ठ अधिकारी भी हैं। इस कारण हमें शांति सम्बन्धी समारोहोंमें भाग न लेनेका अधिकार है। जबतक टर्कीके भविष्य के सम्बन्धमें कुछ नहीं बताया जाता तबतक मुसलमानोंके लिए, और इसी कारण हम सबके लिए, सुलहका कोई अर्थ ही नहीं है। यदि एल्सास लॉरेनके सम्बन्धमें कोई निर्णय न हो पाया तो शान्ति-उत्सवोंमें फ्रांस के भाग न लेनेपर आश्चर्य- की कोई बात न होगी। मुसलमानोंके लिए खिलाफतका प्रश्न ठीक उसी प्रकारका है। मैं आशा करता हूँ कि वाइसराय महोदय स्वयं ही, टर्कीके बारेमें फैसला होनेके समयतक, शान्ति समारोहको स्थगित रखेंगे।

"कल रात मुसलमान भाइयोंने एक और महत्त्वपूर्ण निश्चय किया है। यदि शान्तिकी शर्तें, भगवान् न करे, उनके विरुद्ध गईं तो वे सरकारको सहायता देना बन्द कर देंगे। मुझे लगता है कि यह प्रजाका हक है। सरकारी खिताब लेने या उसकी नौकरी करनेके लिए लोग बँधे हुए नहीं हैं। यह खुशीका सौदा है। यह बात स्पष्ट है कि जिसके हाथसे अपना भला न हो उसकी मदद करनेके लिए हम बँधे हुए नहीं हैं। हम सरकारी नौकरी आजीविकाके लिए, और यदि हममें जनकल्याणकी भावना हो तो जनताके हितके लिए करते हैं। लेकिन यदि हमें खिलाफत जैसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण धार्मिक प्रश्नके सम्बन्धमें सरकारके हाथों नुकसान पहुँचता है तो ऐसी स्थितिमें हम उसकी सहायता कैसे कर सकते हैं? इसलिए यदि खिलाफतका निर्णय हमारे विरुद्ध जाये तो सहायता न करनेका हमें हक है।

"लेकिन यदि सहायता न करनेकी बातसे हम ब्रिटिश मालके बहिष्कारपर आते हैं तो वह हाथीकी सवारी छोड़कर गधेकी सवारी करने जैसा है। सहायता न करना