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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हमारा हक है, और उससे हम बड़े परिणामोंकी प्राप्ति भी कर सकते हैं। परन्तु बहिष्कार करनेका हक हमें नहीं है और उसका परिणाम बुरा ही होगा। हक न होनेका कारण यह है कि वैसा करके हम ब्रिटिश जनताको सजा देनेका इरादा रखते हैं, और ऐसा इरादा त्याज्य होना चाहिए। हमारी फरियाद सरकारसे है। इसका परिणाम भी उल्टा होगा क्योंकि हम खिलाफत जैसे प्रश्नका सन्तोषप्रद निर्णय समस्त संसारके जनमतको अपनी ओर करके ही प्राप्त कर सकते हैं, और बहिष्कारके कारण जनमत हमारे विरुद्ध हो जायेगा इस बातकी पूरी सम्भावना है। अतएव [हमारे लिए] जिस हदतक सहायता न देनेके व्रतका पालन करना उचित है उसी हदतक बहिष्कार भी त्याज्य है। इसके अतिरिक्त अंग्रेजोंमें व्यापारकी बहुत बड़ी शक्ति होती है। वे लोग अनेक प्रकारकी युक्तियोंसे अपना माल [हमारे देशमें] पहुँचा सकते हैं। जापानकी मार्फत माल पहुँचानेका ढंग अंग्रेजोंको खूब आता है। इसलिए बहिष्कारका परिणाम अंग्रेजी मालको बन्द करके अपने देशमें दूसरे देशोंकी सत्ताको दाखिल होने देनेके समान होगा।

बहिष्कार क्रोधकी निशानी है, सहायता न देना हमारी दृढ़ताका सूचक है। बहिष्कार हमारी दुर्बलताका परिचायक है, सहायता न देना हमारी शक्तिको प्रकट करता है। खिलाफत-जैसी महान् समस्याका समाधान हम अपनी निर्बलतासे नहीं वरन् अपनी शक्तिके द्वारा ही कर सकेंगे।

"इसलिए में जनता से सादर निवेदन करता हूँ कि यदि हम चाहते हैं कि इस प्रश्नका परिणाम शुभ हो तो हमें धैर्य, दृढ़ता, सत्य, निर्भयता आदि गुणोंका पालन करना होगा। एक अच्छा कार्य उसके कर्ताकी अशक्ति, अज्ञान, मूर्खता, उतावलेपन और रोषके कारण बिगड़ जाया करता है; अपने हाथसे हम खूंरेजी न करें—इतना ही पर्याप्त नहीं है। हमने जबानसे भी खून होते हुए देखे तथा सुने हैं। इसलिए जिस तरह हमारे लिए हाथ-पैरोंको अपने वशमें रखनेकी आवश्यकता है उसी तरह हमें अपनी जबानको भी वशमें रखने की जरूरत है। हमारी लड़ाई सच्ची है और जहाँ सत्य है वहाँ विजय है। मुझे भरोसा है कि यदि हम इस विश्वासको लेकर डटे रहेंगे तो इस प्रश्नका अच्छा परिणाम अब भी निकल सकता है।"

सभा द्वारा स्वीकृत प्रस्ताव

मुझे लगा कि इस भाषणका बहुत अच्छा असर हुआ। सभामें अनेक बाधाएँ उत्पन्न होंगी, यह आशंका गलत निकली; विरोधमें एक भी शब्द कहे बिना प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हो गया। प्रस्तावका समर्थन सबने खड़े होकर सहर्ष किया। प्रस्ताव यह था कि खिलाफतका प्रश्न सुलहका एक अंग होने तथा उसके साथ हिन्दुस्तानकी एक चौथाई आबादी, अर्थात् मुसलमानोंका गहरा और घनिष्ठ सम्बन्ध होने, और यदि दूसरे शब्दों में कहें तो यह सवाल जनताका होनेके कारण हिन्दुस्तान-भरकी जनता शान्ति समारोहोंमें भाग लेने में असमर्थ है। इसलिए वह माननीय वाइसराय महोदयसे प्रार्थना करती है कि जबतक खिलाफत के प्रश्नका सन्तोषजनक हल नहीं निकल आता तबतक वे शान्ति सम्बन्धी इन समारोहोंको मुल्तवी रखें।