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दुर्गादास अडवानी

मैं अपने पाठकोंके सामने ऐसे मामलोंके विषयमें अपना मत रखना चाहता हूँ। मुकदमेबाजी और अपीलोंमें हम लोग बेहिसाब धन फूँक देते हैं। हम लोग जेलके नामसे ही थर्रा उठते हैं। मुझे इसमें रत्ती भर भी सन्देह नहीं कि यदि न्यायालयोंपर हम लोग इतना अधिक निर्भर रहना छोड़ दें तो समाजकी अवस्था कहीं अधिक उन्नत और स्वस्थ हो जायेगी। अच्छे-अच्छे वकीलकी तलाश करना भी अशोभनीय है। और इस कामके लिए जब सार्वजनिक धनका उपयोग किया जाये तो वह अक्षम्य हो जाता है और जब सत्याग्रही भी इस प्रकार मुकदमेबाजी और अच्छेसे-अच्छे वकीलोंकी तलाश में अपव्यय करते हैं तो वे घोर पाप करते हैं। इसलिए मुझे यह सुनकर वेदना हुई कि दुर्गादास मुकदमेमें अपील की गई थी। यदि हमने गुनाह किया है तो हमें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए और उसके लिए जो उचित दण्ड हो उसे भोगनेके लिए तैयार रहना चाहिए। यदि दोषी न होनेपर भी किसीको अपराधी करार दिया जाये तो जेल जाना उसके लिए अप्रतिष्ठाका कारण नहीं हो सकता। और यदि वह सत्याग्रही हो तो उसके लिए जेल जीवनकी यातनाओंसे किसी तरह भी भयभीत होनेकी गुंजाइश नहीं रहती।

हमारे देश में एक तो वातावरणमें सन्देह और अविश्वासका बोलबाला है, दूसरे यहाँ एक ऐसा खुफिया विभाग हावी है जिसकी तुलना दुरंगेपन और बेईमानीके मामलेमें संसारके अन्य किसी भी खुफिया विभागसे नहीं की जा सकती। इसलिए यदि हम उस विभागका सुधार करना चाहते हैं और अविश्वास तथा सन्देहको दूर करना चाहते हैं तो हमें जेल जीवनका अभ्यस्त बनना पड़ेगा।

यदि इस तरहके अविश्वास और खुफिया पुलिस विभागसे देशका उद्धार करना है तो सबसे उत्तम और शीघ्र फलदायी उपाय यही होगा कि लोगोंके हृदयोंसे मिथ्या भय तथा हिंसाकी प्रवृत्ति दूर की जाये। पर जबतक वह सुदिन नहीं आता तबतक मुट्ठीभर सत्याग्रहियोंको जेलको ही अपना घर बना लेना चाहिए।

इसलिए मुझे आशा है कि दुर्गादासके मित्र क्षमा-याचनाकी सलाह न तो उन्हें और न उनकी पत्नीको देंगे; और न उनकी पत्नी के साथ सहानुभूति प्रकट कर उनकी सुख और शान्तिमें बाधा पहुँचायेंगे। हमारा कर्त्तव्य तो ठीक इसके विपरीत उन्हें यह समझाना है कि वे अपना हृदय कड़ा करें और इस बातका हर्ष मनायें कि उनके पतिको बिना किसी दोषके, अकारण जेल भेजा गया है। हम लोगोंका परम कर्त्तव्य दुर्गादासकी पत्नीको आर्थिक या अन्य प्रकारकी आवश्यक सहायता देना है। हमें विदित हुआ है कि दुर्गादासके मुकदमे में प्रायः १५,०००) रुपये व्यय हुए। इन रुपयोंका किसी अच्छे काममें भी प्रयोग हो सकता था। जहाँ हम लोग न्यायकी सम्भावना नहीं देखते वहाँ व्यर्थकी लड़ाई लड़कर दरिद्र बन जाना मेरी दृष्टिमें बुद्धिमानी नहीं है। राजनैतिक अभियोगके लिए जरूरत से ज्यादा चिन्तित होना मर्दानगी नहीं है, क्योंकि उससे किसी तरहका लांछन नहीं लगता।

पंजाब में मैंने विदीर्ण-हृदय माताओंको अपने पुत्रोंके लिए जार-जार रोते देखा है, क्योंकि उन्हें अकारण जेल भेज दिया गया। मुझे विदित है कि मैं लाचार हूँ। पर

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