मेरा ख्याल है कि कृष्णअम्मासे हमें पैसे मिला करते थे, न कि हम उन्हें दिया करते थे। उन्हें १६ रुपये देने में मुझे कोई हर्ज नहीं दिखाई पड़ता। आश्रमके खातेसे ही देना। मणीन्द्रको भी आश्रमके खातेसे ही दिया करना। लेकिन जो प्रेसमें काम करते हैं उनके बारेमें नोट बना लेना और [भुगतान करनेकी] निश्चित दरके अनुसार पैसा निकालना, जिससे मीजान मिलता रहे। किसी व्यक्तिको उसकी कमाईके अतिरिक्त जो कुछ देना हो, वह आश्रम से देना।
मैं समझता हूँ कि शामलदासको प्रतिमास ९० रुपये से अधिक नहीं दिया जाना चाहिए। [इस सम्बन्धमें] उसने मुझे अभीतक कोई पत्र नहीं लिखा है। जबतक उसका पत्र न आयेगा, तबतक मैं भी न लिखूँगा। तुम्हें जैसा उचित लगे वैसा करना। तुम चाहोगे तो मैं जरूर लिखूँगा।
मकानोंके बारेमें समझ गया हूँ।
बापूके आशीर्वाद
- गांधीजी के स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ ७०२१) से।
२२२. पत्र : नरहरि परीखको
लाहौर
बुधवार [दिसम्बर १०, १९१९][१]
आपका पत्र मिला। आपका रसोइयेसे पिण्ड छूट गया इसके लिए मैं आपको बधाई देता हूँ। लड़कोंको भी हाथसे रसोई पकानेकी थोड़ी-बहुत तालीम मिलनी चाहिए। भाई द्वारकानाथ अगर रसोईका काम भी हाथमें ले लें तो अधि अच्छा हो। उनके नीचे [काम करनेके लिए] भले ही नौकर रख दो। द्वारकानाथ तो ब्राह्मण नहीं हैं। लेकिन यह तो मेरे शेखचिल्लीके जैसे विचार हैं। तुम्हें जैसा ठीक लगे वैसा करना। रसोईके कामके लिए क्या पढ़ा-लिखा ब्राह्मण नहीं मिलता? हमारी—राष्ट्रकी—नया ही उलटी दिशा में जा रही है।
भाई गिरजाशंकरसे कहना कि मैं भोजनालयके बारेमें भूला नहीं हूँ, बल्कि समय ही नहीं मिल पाया है।
अब तो मुझे लगता है कि हम थोड़े दिनों बाद मिलेंगे। भाई किशोरलालसे कहना कि उन्हें बम्बई में भी शालाके कामको भूल नहीं जाना है तथा [इसके अलावा] वे स्वदेशीका काम तो कर ही सकेंगे।
बापूके आशीर्वाद
- ↑ इस पत्रमें बादमें जोड़े गये हिस्सेसे पता चलता है कि सम्भवतः गांधीजीने यह पत्र उसी दिन लिखा था जिस दिन "पत्र : मगनलाल गांधीको", १०-१२-१९१९ लिखा। उस पत्रमें गांधीजीने आश्रमवासियोंके असन्तोषजनक स्वास्थ्यकी चर्चा की थी।