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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि जनता ऐसे त्यागके लिए तैयार नहीं है। इस तरहकी राजनैतिक शिक्षा अभी लोगोंके हृदयोंमें स्थान नहीं बना पाई है। कोई भी वस्तु हमें जब इस हदतक नापसन्द हो कि हमें उसको स्वीकार करने मात्रसे अपनी आत्माका हनन होता जान पड़े तब हमें उस वस्तुका त्याग करनेका अधिकार है और वह हमारा फर्ज है। इस तरह बहिष्कार करके ही हम शीघ्र से शीघ्र अपनी उन्नति कर सकते हैं इन विचारोंने अभी जड़ नहीं पकड़ी है।

संशयशील व्यक्तिका तो नाश ही होता है;[१] इस सूत्र के आधारपर हमारे मनोंमें उपर्युक्त विचारके प्रति शंका है और इस प्रकार हम इस महान् त्यागके लिए तैयार नहीं हैं। छोटी-छोटी बातों में त्यागके ऐसे प्रयोग करके देखे जा सकते हैं। छोटी अर्थात् जिनमें हम अपने त्यागके परिणामको तुरन्त देख सकते हैं जिससे हमें किसी बड़ी विपत्ति में पड़ने की सम्भावना नहीं होती। यदि हम सुधारोंको अस्वीकार करते हैं तो इस बातकी बहुत अधिक सम्भावना है कि हमें तुरन्त किसी लाभकी प्राप्ति न हो। इसलिए हमारे द्वारा सुधारोंको अस्वीकृत किया जाना उचित नहीं माना जायेगा।

हम सुधारोंकी आलोचना करें; लेकिन यह आलोचना मर्यादित होनी चाहिए और उससे सुधारोंके प्रति हमारी निराशा व्यक्त होनी चाहिए। हम यह कह सकते हैं कि हम इनसे अधिक लेनेकी कोशिश करेंगे। हमें यही कहना चाहिए।

लेकिन ज्यादा जरूरत तो इस बातकी है कि हम यह जान लें कि हमें जो सुधार प्राप्त हुए हैं उनका हम अच्छेसे अच्छा उपयोग किस रूपमें कर सकते हैं। और उसी के अनुसार हमें उनका उपयोग करना चाहिए।

यहाँ हमें यह बात तो स्वीकार करनी ही चाहिए कि कॉमन्स सभामें जो विधेयक पेश किये गये हैं, उनमें सुधार किये गये हैं और हमें महत्त्वपूर्ण हकोंकी प्राप्ति हुई है। पहले हमें इन हकोंके मिलनेकी बहुत कम आशा थी। एक समय तो यह भी कहा जाता था कि सुधार-सम्बन्धी कानून फिलहाल पास ही नहीं होगा। इसकी जगह अब विधेयक ठीक संशोधनोंके साथ पारित होने जा रहा है। इन बातोंसे हम पर्याप्त सन्तोष प्राप्त कर सकते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि इन सुधारोंका श्रेय तो श्री मॉण्टेग्युको ही है। इन सुधारोंसे सम्बन्धित कानून थोड़े ही दिनोंमें पास हो जायेगा, इस बातका श्रेय भी आपको ही जाता है।

सुधारोंका अध्ययन करनेके बाद जनताको धारा सभाओं में प्रामाणिक और समझदार प्रतिनिधि भेजने के प्रयत्न करने चाहिए। प्रतिनिधियोंमें मानकी जितनी कम इच्छा होगी, पद और उसके साथ धनप्राप्तिका [जितना कम] लोभ होगा, प्रतिनिधि होने में जिस हदतक लोगोंकी सेवा करना ही मुख्य उद्देश्य होगा उस हदतक सुधारोंका उपयोग अच्छी तरह हो सकेगा। इतना ही नहीं, हम जल्दी ही सम्पूर्ण उत्तरदायित्व सँभालनेके योग्य हो जायेंगे और शीघ्र ही उत्तरदायित्व प्राप्त कर सकेंगे।

किन्तु रौलट विधेयक और पंजाबके बारेमें क्या करें? यदि हम सुधारोंका परित्याग करने में समर्थ होते तो हमारे पास उनके उत्तमसे उत्तम उपाय थे। अब हमें

  1. संशयात्मा विनश्यति, भगवद्गीता ४, ४०