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पत्र : विद्यार्थियोंको

अनेक व्यक्ति भारत मन्त्रीके पदपर रह चुके हैं, पर यह पद जितना श्री मॉण्टेग्युको शोभा देता है उतना किसीको नहीं। श्री मॉण्टेग्यु भारतके सच्चे मित्रोंमें से हैं। वे हमारी कृतज्ञताके पात्र हैं। और लॉर्ड सिन्हा? उन्होंने तो भारतका मुँह उज्ज्वल कर दिया है। भारतको उनपर जो गर्व है वह सर्वथा उचित है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३१-१२-१
 

२३६. पत्र : विद्यार्थियोंको

[१९१९][१]

विद्यार्थी अर्थात् विद्याका भूखा। विद्या अर्थात् जानने योग्य ज्ञान। जानने योग्य तो केवल आत्मा ही है, इसलिये विद्या अर्थात् आत्मज्ञान। लेकिन आत्मज्ञान प्राप्त करनेके लिए साहित्य, इतिहास, भूगोल, गणित आदि जानना चाहिए। य सब साधन रूप हैं। इन विषयोंका ज्ञान प्राप्त करने के लिए अक्षर ज्ञान होना आवश्यक है। अक्षर-ज्ञानके बिना भी इन विषयोंको जाननेवाले व्यक्ति हमने देखे हैं। जो व्यक्ति इतना जानता है वह अक्षर ज्ञान अथवा साहित्यादिके ज्ञानके पीछे दीवाना नहीं होगा, वह तो आत्मज्ञान ही के पीछे पागल रहेगा। आत्मज्ञानकी प्राप्तिमें जो विषय विघ्न रूप हैं, उनका त्याग करेगा और जो सहायक हैं, उनका पालन करेगा। इस बातको समझनेवाले व्यक्तिका विद्यार्थी जीवन कभी समाप्त नहीं होता और वह खाते, पीते, सोते, खेलते, खोदते, बुनते, कातते कोई भी काम करते समय ज्ञान-प्राप्ति करता ही रहता है। इसके लिए पर्यवेक्षण-शक्तिको विकसित करना चाहिए। उस व्यक्तिको सर्वदा शिक्षकों के समूहकी आवश्यकता नहीं होती बल्कि वह समस्त विश्वको शिक्षकके रूपमें मानकर उससे गुण ग्रहण करता रहता है।

बापू

गांधीजी स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ५९८२) से।
  1. इस पत्रकी तारीख उपलब्ध नहीं है।