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२३७. भाषण : अमृतसर कांग्रेसमें सुधार प्रस्तावपर[१]

जनवरी १, १९२०

श्री गांधीने हिन्दी[२] में बोलते हुए कहा कि मुझे श्री दास द्वारा प्रस्तावित और श्री तिलक द्वारा अनुमोदित प्रस्तावके विरोधमें बोलते हुए दुःख हो रहा है। में बहुत हदतक प्रस्तावसे सहमत हूँ परन्तु में सुधारोंको 'निराशाजनक'[३] माननेको तैयार नहीं हूँ।

"निराशाजनक" कहनेसे तात्पर्य है कि उस सम्बन्धमें कोई व्यक्ति कुछ कर सकने में समर्थ नहीं था। परन्तु वे लोग जिन्होंने सुधारोंको "निराशाजनक" बताया है, कह चुके हैं कि हम अपने उम्मीदवारोंसे परिषद्को भर देंगे। श्री गांधीने कांग्रेससे इस बातपर विचार करने को कहा। उन्होंने कहा यदि वे लोग सुधार कानूनका उपयोग करना चाहते हैं तो उसे "निराशाजनक" क्यों कहते हैं?

इसके बाद उन्होंने अपना संशोधन रखा जो कलकी विषय-सूचीमें प्रकाशित रूपसे भिन्न था। श्री गांधीके इस परिवर्तित संशोधनमें "निराशाजनक" शब्द दिया गया था, और अब वह इस प्रकार था :

उत्तरदायी शासन स्थापित होनेतक यह कांग्रेस शाही घोषणामें व्यक्त इन भावनाओंका निष्ठापूर्वक स्वागत-समर्थन करती है कि "इस (नये युग) का प्रारम्भ मेरी जनता तथा मेरे अधिकारियोंके बीच इस समान दृढ़ संकल्पके साथ हो कि वे मिल-जुलकर एक सामान्य उद्देश्यके लिए काम करेंगे" और (कांग्रेस) आशा करती है कि अधिकारी तथा जनता दोनों परस्पर सहयोग करते हुए सुधारोंको इस तरह अमलमें लायेंगे जिससे पूर्ण उत्तरदायी सरकारकी शीघ्र स्थापना हो सके, और साथ ही यह कांग्रेस माननीय

  1. गांधीजी चित्तरंजन दास द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावपर बोले जो इस प्रकार था :
    (क) "यह कांग्रेस पिछले सालकी अपनी इस घोषणाको दुहराती है कि भारत पूर्ण उत्तरदाबी सरकारके योग्य है और ऐसी सभी पूर्वगृहीत धारणाओं और कथनों का खंडन करती है जिनमें इस बातको अस्वीकार किया गया हो।
    (ख) कि यह कांग्रेस संवैधानिक सुधारोंके विषयमें दिल्ली कांग्रेस द्वारा पास किये प्रस्तावपर दृढ़ है और इसका मत है कि सुधार अधिनियम अपर्याप्त, असन्तोषजनक और निराशाजनक हैं।
    (ग) कि यह कांग्रेस आग्रह करती है कि पार्लियामेंट भारतमें स्वशासनके सिद्धान्तोंके अनुसार पूर्ण उत्तरदायी सरकार स्थापित करनेके लिए शीघ्र ही कदम उठाये!"
    एस॰ सत्यमूर्ति, हसरत मोहानी, पंडित रामभजदत्त चौधरी और चन्द्रवंशी सहायने इसका अनुमोदन किया। यह रिपोर्ट ३-१-१९२० के ट्रिव्यूनसे ली गई है।
  2. मूल हिन्दी भाषण उपलब्ध नहीं है।
  3. लोकमान्य तिलकने अपने भाषण में कहा था कि "अपर्याप्त, असन्तोषजनक और निराशाजनक" शब्द सर्वथा नये नहीं हैं। कांग्रेसके पहले अधिवेशनोंमें भी हम इन शब्दोंका प्रयोग कर चुके हैं और अब भी हमें वही आपत्तियाँ हैं। कुछ लोग 'निराशाजनक' शब्दको निकाल देना पसन्द करते हैं। मैंने इसका कोई कारण नहीं पाया। इस बीच कुछ भी ऐसा नहीं हुआ जिससे हमारे विचार बदल जाते।"