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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

समिति के अध्यक्ष और कांग्रेस अध्यक्षके भाषण, हिन्दुस्तानी (देवनागरी और उर्दू दोनों लिपियों) में, अंग्रेजीमें और जिस प्रान्त में कांग्रेस हो वहाँकी स्थानीय भाषामें छपाये जायें और द्वारपर लागत मात्रपर या मुफ्त बाँटे जायें। जैसा कि प्रायः होता है वे पंडाल में न बाँटे जाने चाहिए क्योंकि इससे सभीको असुविधा होती है। स्वागताध्यक्ष और कांग्रेस अध्यक्ष उनका सार या तो पढ़ दें या जबानी सुना दें जिसमें प्रत्यक्षतः तीस मिनटसे अधिक समय न लगे।

तीसरी खराबी है एक विशाल पंडाल बनाने में की जानेवाली रुपयेकी भयंकर बर्बादी। यह बढ़ती ही जाती है। भारतीय जलवायुमें सभाएँ खुलेमें की जा सकती हैं। परन्तु मैं इस मामले में कुछ अधिक नहीं कहूँगा, क्योंकि कांग्रेस महासमितिने कांग्रेसके पूरे संविधानपर विचार करनेके लिए एक उप-समिति नियुक्त कर दी है जिसके सर्वश्री केलकर, आई॰ बी॰ सेन, ए॰ रंगास्वामी आयंगार, माननीय वी॰ जे॰ पटेल और मैं सदस्य हैं।

कांग्रेस के प्रस्तावोंसे प्रकट होता है कि कांग्रेस में तीव्र मतभेद हैं और समय पाकर इसमें दलोंका बन जाना अनिवार्य है। अबतक कांग्रेस केवल एक दलीय संस्था रही है; किन्तु यदि इसमें से साल-दर-साल अधिकाधिक लोगोंको अलग नहीं होने देना है तो वह अब एक दलीय संस्था नहीं रखी जा सकती। उसमें सब दलोंको प्रतिनिधित्व देनेके उपाय निकाले जाने चाहिए; उसके वार्षिक अधिवेशनका सच्चा राष्ट्रीय स्वरूप तभी कायम रह सकता है।

अब प्रस्तावोंपर विचार करें। ज्यादतियोंकी निन्दाकी बात लीजिए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस प्रस्तावके बिना कुछ प्रस्ताव बिलकुल बेजान और महत्त्वहीन हो जाते। यदि हम खुद अपनी ज्यादतियोंकी निन्दा करने के लिए तैयार नहीं होते तो हमारा अधिकारियोंकी निन्दा करना और इसलिए जनरल डायर या सर माइकेल ओडायर या वाइसरायको वापस बुलाये जानेकी माँग करना उचित नहीं होता। अप्रैलमें भीड़ने जो पागलपन-भरा रोष दिखाया, यह प्रस्ताव उसका प्रायश्चित है। यदि हमें कोई व्यवस्थित प्रगति करनी है तो हमें किसी भी रूप में की गई लोगोंकी हिंसाको स्पष्ट शब्दोंमें गलत बतलाना चाहिए। यह सच है कि पश्चिममें जनता प्रायः हिंसाका आश्रय लेती है; किन्तु इसके विरुद्ध प्रबल लोकमत बनाकर हमें भारतमें ऐसी हिंसाको असम्भव बना देना चाहिए। बहुत कम लोग इस बातसे इनकार करेंगे कि छ: अप्रैलको भारतमें एक नई शक्ति, एक नई स्फूर्ति संचरित हो गयी थी। और यदि सत्य हमारे पक्षमें होता तो उस शक्तिको कोई रोक नहीं सकता था। यह मेरा पक्का विश्वास है कि यदि अप्रैलमें हमारी अपनी मूर्खतासे सत्याग्रहकी प्रगति रुक न गई होती तो रौलट अधिनियम न केवल विधि संहितामें से ही हटा दिया जाता बल्कि हमें एक अंग्रेज जनरलके पागलपनका अपमानजनक और तिरस्कारपूर्ण दृश्य भी न देखना पड़ता। असल में जब अपने राष्ट्रीय मामलोंपर हमारा पूरा नियन्त्रण हो जायेगा तब आत्मसंयमके बिना देशका शासन चलना भी हमें असम्भव लगेगा। भारत जैसे विशाल देशमें, जहाँ लोग सामान्यतः शान्तिप्रिय हैं, यदि जन-समुदाय की मनमानी आमतौरपर चलने लगे तो हमारे लिए देशका शासन चलाना असम्भव हो जायेगा। उस प्रवृत्ति-