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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


आज सुबह ही मैं इस विषयपर चर्चा कर रहा था। यह प्रतिज्ञा या इसका यह अंश वास्तवमें एक अंकुशका काम करता है। अगर आप इसे फिर पढ़ें तो देखेंगे कि उस प्रतिज्ञा या उसके उक्त अंशका उद्देश्य, जहाँतक कानून भंग करनेका सवाल है, व्यक्तिगत स्वतन्त्रतापर अंकुश लगाना है; और चूँकि मैं इसे एक सार्वजनिक आन्दोलनका रूप देना चाहता था इसलिए मैंने सोचा कि ऐसा-कुछ करना[१] आवश्यक है, जिससे, जहाँतक सत्याग्रहियोंका सम्बन्ध है, कोई व्यक्ति सर्वसाधारणको मनचाहे ढंगसे न नचाने लगे। इसलिए मेरे मनमें यह योजना आई कि समिति ही यह कह सकनेकी स्थितिमें हो कि इस कानूनका सामूहिक रूपसे उल्लंघन किया जाये।

कहावत है कि जितने वैद्य उतने उपचार, और श्री देसाईने जो कहा है उससे मैं ऐसा समझा हूँ कि कुछ ऐसी ही बात सत्याग्रहियोंके सम्बन्धमें भी है?[२]

मुझे तो इसमें कोई सन्देह नहीं है और इसका मुझे दुःखद अनुभव है।

अब में आपके सामने उदाहरणार्थ एक मसला रखता हूँ। मान लीजिए किसी सत्याग्रहीको इस बातका पूरा सन्तोष हो कि अमुक कानून न्यायसंगत है और उसका पालन होना चाहिए लेकिन सत्याग्रहियोंकी समिति कहती है कि 'इस कानूनकी अवज्ञा करो' तो जिस सत्याग्रहीने ऐसी प्रतिज्ञापर हस्ताक्षर किये हों, वह क्या करेगा?

जिसे वह अन्यायपूर्ण नहीं मानता, उस कानूनकी अवज्ञा करनेका उसपर कोई बन्धन नहीं है और हमारे बीच ऐसे बहुत-से सत्याग्रही थे।

मैं तो समझता हूँ कि प्रतिज्ञाकी शर्तोंके अनुसार वह ऐसे कानूनकी भी अवज्ञा करनेको बँधा हुआ है?

नहीं, इस प्रतिज्ञाको जिस रूपमें मैंने समझा है और इसकी मैंने जो व्याख्या की है उसके अनुसार तो वह बँधा हुआ नहीं है। अगर समिति यह कहेगी कि प्रतिज्ञाका जो अर्थ में लगाता हूँ, वह गलत है तो में सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ कि जब दूसरी बार सत्याग्रह-संघर्ष आरम्भ करूँगा तब इस भूलको सुधार लूँगा।

श्री गांधी, मैं आपको कोई सलाह नहीं देना चाहता, और मैं जानता हूँ कि अगर दूँगा भी तो आप स्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन यह सत्याग्रह खतरनाक किस्मका आन्दोलन है।

काश मैं सचमुच समितिके इस विचारको कि यह एक खतरनाक आन्दोलन है, उसके मनसे दूर कर सकता! यदि आप इस संघर्षको देशके हिंसावादियोंसे मुक्त करनेके प्रयासके रूपमें देखें तो मेरी तरह आपको भी यह चिन्ता होगी कि जिस

  1. यंग इंडियामें प्रकाशित रिपोर्टके अनुसार, तात्पर्य 'सत्याग्रह समिति' जैसी किसी समितिके गठनसे हैं।
  2. तात्पर्य होमरूलकी अहमदाबाद शाखाके मंत्री और सत्याग्रह सभाके एक सदस्य वैरिस्टर जीवन-लाल व्रजराय देसाईके उस विचारसे है जो ८ जनवरीको समितिके सामने गवाही देते हुए उन्होंने त किया था कि सत्याग्रह आन्दोलनको "निरपवाद रूपसे शिक्षित वर्गतक ही सीमित रखा जाना चाहिए।"