पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 16.pdf/४४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०७
उपद्रव जाँच समितिके सामने गवाही

गुंजाइश नहीं है। लेकिन इस खयालसे कि कहीं मुझे गलत न समझ लिया जाये, आज तो मैं यह नहीं कह सकता कि मैं किसी ऐसे आदमीके विरुद्ध कोई जानकारी नहीं दूँगा—जिसे मैंने अपनी आँखोंसे अपराध करते देखा हो। कारण यह है कि मैं अपने आपको सर्वांगपूर्ण सत्याग्रही कहने का साहस नहीं करता; हाँ, वैसा बननेकी कोशिश अवश्य कर रहा हूँ और जब वैसा बन जाऊँगा तब ईश्वर मेरे मार्गमें, शायद कभी भी ऐसा कोई प्रलोभन नहीं रखेगा। लेकिन अगर प्रलोभन हुए तब भी में निश्चय ही गवाही नहीं दूँगा। लेकिन आज तो मैं अपने बारेमें यह कहने में असमर्थ हूँ कि मैं वैसा नहीं करूँगा।

अब एक दूसरी बात है जिसपर आप शायद अपने विचार व्यक्त करना चाहे। दंगोंको दबानेके लिए सरकारने जो कार्रवाइयाँ कीं, उनके बारेमें आपको क्या कहना है?

अहमदाबादके बारेमें तो मेरा यह खयाल है कि वहाँ प्राविधिक रूपसे चाहे सैनिक कानून लागू रहा हो या नहीं, लेकिन श्री प्रेंट तथा वहाँ उपस्थित अन्य सज्जनोंकी बातोंसे तो मेरे दिमागपर यही छाप पड़ी है कि वहाँ सैनिक कानून लागू था। मुझे लगता है कि सैनिक कानून लागू करनेकी कोई आवश्यकता नहीं थी, लेकिन दरअसल तो मुझे इस सम्बन्धमें कोई निर्णय देनेका अधिकार नहीं है। मेरा खयाल है कि अत्यन्त गंभीर उत्तेजनात्मक स्थितिके बावजूद सरकारने अधिकसे-अधिक आत्मनियंत्रणसे काम लिया। अगर उपद्रवको दबानेके लिए रेलगाड़ीसे कोई फौजी टुकड़ी आ रही हो और उस गाड़ीके पटरीसे उतार दिये जानेका खतरा हो तथा वह खतरा किसी प्रकार टल गया हो तो में समझ सकता हूँ कि उस टुकड़ीके सैनिक क्रोधोन्मत्त होकर किस प्रकार तबाही बर्बादी मचा देंगे।[१] वैसे लोग तो इसे पागलपन ही कहेंगे, लेकिन क्रोधातिरेकमें किये गये ऐसे कार्योंको में अपने मनमें क्षम्य मानूँगा। इसलिए मैं समझता हूँ कि सरकारने तथा जो लोग सचमुच मौकेपर परिस्थितिका सामना कर रहे थे उन लोगोंने भी आत्मनियन्त्रणसे काम लिया। लेकिन साथ ही मेरा यह भी विचार है कि जिन शब्दोंमें सैनिक नोटिस तैयार किया गया था, उनपर बहुत ही गम्भीर आपत्तियोंकी गुंजाइश है। मेरा खयाल है सेनाको जिस परिस्थितिका सामना करना पड़ रहा था, उसमें ऐसा कुछ करना बिलकुल अनावश्यक था, और मेरा विश्वास है कि उसके परिणामस्वरूप बहुत-से निर्दोष लोगोंको अपने प्राण गँवाने पड़े। अगर सैनिक अथवा अर्ध सैनिक शासन कुछ लम्बी अवधितक लागू रखा गया होता तो न जाने क्या-कुछ हो जाता।

क्या आपको ऐसे किसी मामलेकी जानकारी है, जिसमें भीड़से पहले तितर-बितर हो जानेको कहे बिना ही गोलियाँ चलाई गई हों?

मेरे सामने जो बयान दिये गये, उनपर अगर में विश्वास करूँ तो मेरा खयाल है, ऐसा हुआ है और अगर ऐसा हुआ है तो मुझे निश्चय ही उसपर कोई आश्चर्य नहीं

  1. एक फौजी गाडीको, जो बम्बईसे कुमुक ला रही थी, ११ अप्रैलको नडियाद में पटरीसे उतार दिया गया था; एक दूसरी गाड़ीको बारेजडी स्टेशनपर पटरीसे उतारने की कोशिश असफल रही।